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उत्तरखण्ड ]
• श्रीनृसिंहचतुर्दशीके व्रत तथा श्रीनसिंहतीर्थकी महिमा .
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तत्पर रहनेवाले थे। उनकी स्त्रीका नाम लीलावती था। तत्पश्चात् उसे पञ्चामृतसे स्नान कराये। इसके बाद वह भी परम पुण्यमयी, सतीरूपा तथा स्वामीके अधीन शाखके ज्ञाता और लोभहीन ब्राह्मणको बुलाकर आचार्य रहनेवाली थी। उन दोनोंने बहुत समयतक बड़ी भारी बनाये और उसे आगे रखकर भगवान्की अर्चना करे। तपस्या की। तपस्यामें ही उनके इक्कीस युग बीत गये। पूजाके स्थानपर एक मण्डप बनवाकर उसे फूलके तब उस क्षेत्रमें प्रकट होकर मैंने उन दोनोंको प्रत्यक्ष गुच्छोंसे सजा दे। फिर वर्तमान ऋतु सुलभ होनेवाले दर्शन दिया। उस समय उन्होंने मुझसे कहा- फूलोंसे और षोडशोपचारकी सामग्रियोंसे विधिपूर्वक 'भगवन् ! यदि आप मुझे वर देना चाहते है तो इसी मेरा पूजन करे। पूजामें नियमपूर्वक रहकर मुझसे सम्बन्ध समय आपके समान पुत्र मुझे प्राप्त हो।' बेटा प्रहाद ! रखनेवाले पौराणिक मन्त्रोंका उपयोग करे। जो चन्दन, उनकी बात सुनकर मैंने उत्तर दिया- 'ब्रहान् ! कपूर, रोली, सामयिक पुष्प तथा तुलसीदल मुझे अर्पण निस्सन्देह मैं आप दोनोंका पुत्र हूँ। किन्तु मैं सम्पूर्ण करता है, वह निश्चय ही मुक्त हो जाता है। समस्त विश्वको सृष्टि करनेवाला साक्षात् परात्पर परमात्मा हैं, कामनाओकी सिद्धिके लिये जगद्गुरु श्रीहरिको सदा सदा रहनेवाला सनातन पुरुष हूँ; अतः गर्भमें नहीं कृष्णागरुका बना हुआ धूप निवेदन करना चाहिये, निवास करूँगा।' तब हारीतने कहा-'अच्छा, ऐसा ही क्योंकि वह उन्हें बहुत ही प्रिय है। एक महान् दीप हो।' तबसे मैं भक्तके कारण उस क्षेत्रमें निवास करता जलाकर रखना चाहिये, जो अज्ञानरूपी अन्धकारका हूँ। मेरे श्रेष्ठ भक्तको चाहिये कि उस तीर्थमें आकर मेरा नाश करनेवाला है। फिर घण्टेकी आवाजके साथ बड़े दर्शन करे। इससे उसकी सारी बाधाओंका मैं निरन्तर रूपमें आरती उतारनी चाहिये। तदनन्तर नैवेद्य निवेदन नाश करता रहता हूँ। जो हारीत और लीलावतीके साथ करे, जिसका मन्त्र इस प्रकार हैमेरे बालरूपका ध्यान करके रात्रिमें मेरा पूजन करता है, नैवेद्यं शर्करां चापि भक्ष्यभोज्यसमन्वितम् । वह नरसे नारायण हो जाता है।
ददामि ते रमाकान्त सर्वपापक्षयं कुरु ॥ बेटा ! मेरे व्रतका दिन आनेपर भक्त पुरुष सबेरे
(१७० । ६२) दन्तधावन करके इन्द्रियोंको काबूमें रखते हुए मेरे सामने लक्ष्मीकान्त ! मैं आपके लिये भक्ष्य-भोज्यसहित व्रतका सङ्कल्प करे-'भगवन् ! आज मैं आपका व्रत नैवेद्य तथा शर्करा निवेदन करता हूँ। आप मेरे सब करूँगा। इसे निर्विघ्रतापूर्वक पूर्ण कराइये।' व्रतमें स्थित पापोंका नाश कीजिये। होकर दुष्ट पुरुषोंसे वार्तालाप आदि नहीं करना चाहिये। तत्पश्चात् भगवानसे इस प्रकार प्रार्थना करेफिर मध्याह्नकालमें नदी आदिके निर्मल जलमें, घरपर, 'नसिंह ! अच्युत ! देवेश्वर ! आपके शुभ जन्मदिनको मैं देवसम्बन्धी कुण्डमें अथवा किसी सुन्दर तालाबके भीतर सब भोगोंका परित्याग करके उपवास करूँगा। वैदिक मन्त्रोंसे नान करे । मिट्टी, गोबर, आँवलेका फल स्वामिन् ! आप इससे प्रसन्न हों तथा मेरे पाप और
और तिल लेकर उनसे सब पापोंकी शान्तिके लिये जन्मके बन्धनको दूर करे।' यों कहकर व्रतका पालन विधिपूर्वक स्नान करे। तत्पश्चात् दो सुन्दर वस्त्र धारण करे। रातमें गीत और वाद्योंकी ध्वनिके साथ जागरण करके सन्ध्या-तर्पण आदि नित्यकर्मका अनुष्ठान करना करना चाहिये। भगवान् नृसिंहकी कथासे सम्बन्ध चाहिये। उसके बाद घर लीपकर उसमें सुन्दर अष्टदल रखनेवाले पौराणिक प्रसङ्गका पाठ भी करना उचित है। कमल बनाये। कमलके ऊपर पञ्चरत्नसहित ताँबेका फिर प्रातःकाल होनेपर नानके अनन्तर पूर्वोक्त विधिसे कलश स्थापित करे। कलशके ऊपर चावलोंसे भरा यत्नपूर्वक मेरी पूजा करे। उसके बाद स्वस्थचित्त होकर हुआ पात्र रखे और पात्रमें अपनी शक्तिके अनुसार मेरे आगे वैष्णव श्राद्ध करे। तदनन्तर इस लोक और सोनेकी लक्ष्मीसहित मेरी प्रतिमा बनवाकर स्थापित करे। परलोक दोनोंपर विजय पानेकी इच्छासे सुपात्र