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• वात्रंत्री आदि तीर्थोकी महिमा .
ब्रह्माजी बोले-जो मनुष्य अज्ञानसे मोहित और दान करना चाहिये। इस तीर्थमें स्नान करनेसे होकर तुम्हारे भीतर थूक या मल-मूत्र डालेगा, उसीके महापातको भी मुक्त हो जाते हैं। स्वजनोंका हित भीतर यह शीघ्र चली जायगी और वहीं निवास करेगी। चाहनेवाले पुरुषोंको वहाँ श्राद्धका अनुष्ठान अवश्य इससे तुम्हें छुटकारा मिल जायगा।
करना चाहिये। वहाँ श्राद्ध करनेसे मनुष्य निश्चय ही श्रीमहादेवजी कहते हैं-सुरेश्वरि ! इस प्रकार पितृलोकमें निवास करता है। जहाँ समुद्रसे साभ्रमती ब्रह्माजीकी आज्ञासे वह ब्रह्महत्या देवराज इन्द्रको गङ्गाका नित्य संगम हुआ है, उस स्थानपर ब्रह्महत्यारा छोड़कर चली गयी। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। भी मुक्त हो जाता है। फिर अन्य पापोंसे युक्त मनुष्यों के पूर्वकालमें इन्द्रको इसी प्रकार ब्रह्महत्या प्राप्त हुई थी। लिये तो कहना ही क्या है। मन्दबुद्धि लोग जहाँ तीर्थ इस वानी तीर्थमें तपस्या करके शुद्धचित्त होकर वे नहीं जानते, वहाँ मेरे नामसे उत्तम तीर्थकी स्थापना कर स्वर्गमें गये थे। पार्वती ! साभ्रमतीके तीर्थोंमें 'वानी' लेनी चाहिये। का ऐसा ही माहात्म्य है।
संगमके पास ही आदित्य नामक उत्तम तीर्थ है, जो वानी-संगमसे आगे जानेपर देवनदी साभ्रमती सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात है। उसका दर्शन अवश्य करना भद्रानदीके साथ-साथ वरुणके निवासभूत समुद्रमें जा चाहिये । वहाँ स्नान करनेसे पुष्करमें स्नान करनेका फल मिली है। समुद्र भी साभ्रमतीके अनुरागसे उसका प्रिय होता है। मदार और कनेरके फूलोंसे भगवान् सूर्यका करनेके लिये आगे बढ़ आया है और उसके प्रिय- पूजन, श्राद्ध तथा दान करना चाहिये। यह आदित्यतीर्थ मिलनको उसने अङ्गीकार किया है। भद्रानदी पूर्वकालमें परम पवित्र और पापोंका नाशक है। महापातकी सुभद्राकी सखी थी। उसने मार्गमें मूर्तिमती साक्षात् मनुष्योंको भी यह पुण्य प्रदान करनेवाला है। उस तीर्थके लक्ष्मीकी भाँति प्रकट होकर साभ्रमती गङ्गाकी सहायता बाद नीलकण्ठ नामका एक उत्तम तीर्थ है । मुक्तिकी इच्छा की। उन दोनों नदियोंका पवित्र संगम समुद्रके रखनेवाले पुरुषको उसका दर्शन अवश्य करना चाहिये। उत्तर-तटपर हुआ है। उस तीर्थमें स्रान करके जो पार्वती ! जो मनुष्य बिल्वपत्र तथा धूप-दीपसे भगवान् महावराहको नमस्कार करता और स्वच्छ नीलकण्ठका पूजन करता है, उसे मनोवाञ्छित फलकी जलका दान करता है, वह वरुणलोकको प्राप्त होता है। प्राप्ति होती है। जो निर्जन स्थानमें रहकर वहाँ उपवास उसी मार्गसे वराहरूपधारी भगवान् विष्णुने समुद्रमें करते हैं, वे लोग जिस-जिस वस्तुको इच्छा करते हैं, उसे प्रवेश करके देवताओंके वैरी सम्पूर्ण दानवोंपर विजय वह तीर्थ प्रदान करता है। पायी थी। भगवान्ने जो वाराहका रूप धारण किया था, पार्वती ! जहाँ साभ्रमती नदी दुर्गासे मिली है तथा उसका उद्देश्य देवताओंका कार्य सिद्ध करना ही था। जहाँ उसका समुद्रसे संगम हुआ है, वहाँ स्रान करना वह रूप धारण करके वे समुद्रमें जा घुसे और चाहिये। जो कलियुगमें वहाँ स्नान करेंगे, वे निश्चय ही पृथ्वीदेवीको अपनी दाढ़ोंपर रखकर कर्दमालयमें आ निष्पाप हो जायेंगे। दुर्गा-संगमपर श्राद्ध करना चाहिये। निकले; इससे वहाँ वाराहतीर्थके नामसे एक महान् तीर्थ वहाँ जानेपर विशेषरूपसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना और बन गया। जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, वह निश्चय ही विधिपूर्वक गाय-भैसका दान देना उचित है। यह मोक्षका भागी होता है। यहाँ पितरोंकी मुक्तिके लिये साश्रमती नदी पवित्र, पापोंका नाश करनेवाली और परम श्राद्ध करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष पितरोंके धन्य है। इसका दर्शन करके मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाते साथ ही मुक्त होकर अत्यन्त सुखद लोकमें जाता है। हैं। पार्वती ! साभ्रमती नदीको गङ्गाके समान ही जानना
वाराहतीर्थसे आगे संगम नामक तीर्थ है, जहाँ चाहिये। कलियुगमें वह विशेषरूपसे प्रचुर फल साभ्रमती गङ्गा समुद्रसे मिली है। वहाँ विधिपूर्वक सान देनेवाली है।