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उत्तरखण्ड
. कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि .
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राजन् ! एक बार मैंने भगवान से पूछा-'देवेश्वर ! आप भगवान् विष्णु अथवा शिवकी भलीभाँति पूजा करते हैं, कहाँ निवास करते हैं ?' तो वे मेरौ भक्तिसे संतुष्ट होकर वे मनुष्य पापहीन हो अपने पूर्वजोंके साथ श्रीविष्णुके बोले- 'नारद ! न तो मैं वैकुण्ठमें निवास करता हूँ धाममें जाते हैं। और न योगियोंके हृदयमें। मेरे भक्त जहाँ मेरा गुण-गान नारदजी कहते है-जब दो घड़ी रात बाकी रहे, करते हैं, वहीं मैं भी रहता हूँ।* यदि मनुष्य गन्ध, पुष्प तब तिल, कुश, अक्षत, फूल और चन्दन आदि लेकर आदिके द्वारा मेरे भक्तोंका पूजन करते है तो उससे मुझे पवित्रतापूर्वक जलाशयके तटपर जाय। मनुष्योंका जितनी अधिक प्रसन्नता होती है, उतनी स्वयं मेरी पूजा खुदवाया हुआ पोखरा हो अथवा कोई देवकुण्ड हो या नदी करनेसे भी नहीं होती। जो मूर्ख मानव मेरी पुराण-कथा अथवा उसका संगम हो-इनमें उत्तरोत्तर दसगुने पुण्यकी और मेरे भक्तोका गान सुनकर निन्दा करते हैं, वे मेरे प्राप्ति होती है तथा यदि तीर्थ में स्नान करे तो उसका अनन्त द्वेषके पात्र होते हैं।
फल माना गया है। तत्पश्चात् भगवान् विष्णुका स्मरण शिरीष, (सिरस), उन्मत्त (धतूरा), गिरिजा करके नानका संकल्प करे तथा तीर्थ आदिके देवताओंको (मातुलुङ्गी), मल्लिका (मालती), सेमल, मदार और क्रमशः अर्घ्य आदि निवेदन करे। फिर भगवान् विष्णुको कनेरके फूलोंसे तथा अक्षतोंके द्वारा श्रीविष्णुको पूजा अर्घ्य देते हुए निम्नाङ्कित मन्त्रका पाठ करेनहीं करनी चाहिये। जवा, कुन्द, सिरस, जूही, मालती नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने।
और केवड़ेके फूलोंसे श्रीशङ्करजीका पूजन नहीं करना नमस्तेऽस्तु अषीकेश गृहाणाध्यै नमोऽस्तु ते॥ चाहिये। लक्ष्मी-प्राप्तिको इच्छा रखनेवाला पुरुष तुलसीदलसे गणेशका, दूर्वादलसे दुर्गाका तथा कार्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातःस्रानं जनार्दन । अगस्त्यके फूलोंसे सूर्यदेवका पूजन न करे। इनके प्रीत्यर्थ तव देवेश दामोदर मया सह ।। अतिरिक्त जो उत्तम पुष्प है, वे सदा सब देवताओंकी ध्यात्वाऽहं त्वां च देवेश जलेऽस्मिन् स्नातुमुद्यतः । पूजाके लिये प्रशस्त माने गये हैं। इस प्रकार पूजा-विधि तव प्रसादात्यापं मे दामोदर विनश्यतु ॥ पूर्ण करके देवदेव भगवानसे क्षमा-प्रार्थना करे
(९५१४,७,८) मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर । - 'भगवान् पद्मनाभको नमस्कार है। जलमें शयन यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे॥ करनेवाले श्रीनारायणको नमस्कार है। हषीकेश !
(९४ । ३०) आपको बारंबार नमस्कार है। यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये। 'देवेश्वर ! देव ! मेरे द्वारा किये गये आपके पूजनमें जनार्दन ! देवेश ! लक्ष्मीसहित दामोदर ! मैं आपकी जो मन्त्र, विधि तथा भक्तिकी न्यूनता हुई हो, वह सब प्रसन्नताके लिये कार्तिकमें प्रातःस्रान करूँगा। देवेश्वर ! आपकी कृपासे पूर्ण हो जाय।
आपका ध्यान करके मैं इस जलमें स्रान करनेको उद्यत तदनन्तर प्रदक्षिणा करके दण्डवत् प्रणाम करे तथा हूँ। दामोदर ! आपकी कृपासे मेरा पाप नष्ट हो जाय। पुनः भगवानसे त्रुटियोंके लिये क्षमा याचना करते हुए तत्पश्चात् राधासहित भगवान् श्रीकृष्णको निम्नाङ्कित गायन आदि समाप्त करे। जो इस कार्तिककी रात्रिमें मन्त्रसे अर्घ्य दे
* नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै। मद्रका या गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद । (९४ । २३) + शिरीषोन्मत्तगिरिजामल्लिकाशाल्मलीभवः ।अर्कजैः कर्णिकारेश्च विष्णुनार्यस्तथाक्षतैः ॥ जपाकुन्दशिरीयैश्च यूथिकामालतीभवैः । केतकीभवपुष्पैश्च नैयार्थ्यः शङ्करस्तथा ॥ गणेश तुलसीपौटुंगो नैव तु दूर्षया । मुनिपुष्पैस्तश्या सूर्य लक्ष्मीकामो न चार्चयेत्।। (९४ । २६-२८)