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उत्तरखण्ड ]
. भगवत्स्मरणका प्रकार, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष .
समीप दर्शन होता है। भगवान् अपने समीप रहकर भी अजामिलने अपना धर्म छोड़कर पापका आचरण दूर जान पड़ते हैं-ठीक उसी तरह, जैसे आँखोंमें किया था, तथापि अपने पुत्र नारायणका स्मरण करके लगाया हुआ अञ्जन अत्यन्त समीप होनेपर भी दृष्टिगोचर उसने निश्चय ही भक्ति प्राप्त कर ली थी। जो भक्त नहीं होता।
दिन-रात केवल भगवत्रामके ही सहारे जीवन धारण भक्तियोगके प्रभावसे भक्त पुरुषोंको सनातन करते हैं, वे वैकुण्ठधामके निवासी है-इस विषयमें परमात्माका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। भगवान्की मायासे वेद ही साक्षी है। अश्वमेध आदि यज्ञोका फल स्वर्गमे मोहित पुरुष 'यह तत्त्व है, यह तत्त्व है' यों कहते हुए भी देखा जाता है। उन यज्ञोंका पूरा-पूरा फल भोगकर संशयमें ही पड़े रह जाते हैं। जब भक्ति-तत्त्व प्राप्त होता मनुष्य पुनः स्वर्गसे नीचे गिर जाते हैं; परन्तु जो भगवान् है, तभी विष्णुरूप तत्त्वकी उपलब्धि होती है। सुन्दरि! विष्णुके भक्त हैं, वे अनेक प्रकारके भोगोका उपभोग मेरी बात सुनो। इन्द्र आदि देवताओंने सुखके लिये करके इस प्रकार नीचे नहीं गिरते। वैकुण्ठधाममें पहुँच अमृत प्राप्त किया था; तथापि वे विष्णुभक्तिके बिना जानेपर उनका पुनरागमन नहीं होता। जिसने भगवान् दुःखी ही रह गये। भक्ति ही एक ऐसा अमृत है, जिसको विष्णुकी भक्ति की है, वह सदा विष्णुधाममें ही निवास पाकर फिर कभी दुःख नहीं होता । भक्त पुरुष वैकुण्ठ- करता है। विष्णु-भक्तिके प्रसादसे उसका कभी अन्त धामको प्राप्त होकर भगवान् विष्णुके समीप सदा नहीं देखा गया है। मेढक जलमें रहता है और भंवरा आनन्दका अनुभव करता है। जैसे हंस हमेशा पानीको वनमें; परन्तु कुमुदिनीकी गन्धका ज्ञान भंवरेको ही होता अलग करके दूध पीता है, उसी प्रकार अन्य कर्मोंका है, मेढकको नहीं। इसी प्रकार भक्त अपनी भक्तिके आश्रय छोड़कर केवल श्रीविष्णु-भक्तिकी ही शरण लेनी प्रभावसे श्रीहरिके तत्त्वको जान लेता है। कुछ लोग चाहिये । शरीरको पाकर बिना भक्तिके जो कुछ भी किया गङ्गाके किनारे निवास करते हैं और कुछ गङ्गासे सौ जाता है, वह सब व्यर्थ परिश्रममात्र होता है। जैसे कोई योजन दूर; किन्तु गङ्गाका प्रभाव कोई-कोई ही जानता मूर्ख अपनी बाँहोंसे समुद्र पार करना चाहे, उसी प्रकार है। इसी प्रकार कोई उत्तम पुरुष ही श्रीविष्णुभक्तिको मूढ मानव विष्णुभक्तिके बिना संसारसागरको पार उपलब्ध कर पाता है। जैसे ऊँट प्रतिदिन कपूर और करनेकी अभिलाषा करता है। संसारमें बहुतेरे लोग ऐसे अरगजेका बोझ ढोता है किन्तु उनके भीतरकी सुगन्धको है, जो दूसरोंको उपदेश दिया करते हैं; किन्तु जो स्वयं नहीं जानता, उसी प्रकार जो भगवान् विष्णुकी भक्तिसे आचरण करता हो, ऐसा मनुष्य करोड़ोंमें कोई एक ही विमुख हैं, वे भक्तिके महत्त्वको नहीं जान पाते। देखा जाता है।* जड़में सींचे हुए वृक्षके ही हरे-हरे पत्ते कस्तूरीको सुगन्धको ग्रहण करनेकी इच्छावाले मृग और शाखाएँ दिखायी देती है। इसी प्रकार भजनसे ही शालवृक्षको सूंघा करते हैं। उनकी नाभिमें ही कस्तूरीकी आगे-आगे फल प्रस्तुत होता है। जैसे जलमें जल, गन्ध है-इस यातको वे नहीं जानते। इसी प्रकार दूधमें दूध और घीमें घी डाल देनेपर कोई अन्तर नहीं भगवान् विष्णुसे विमुख मनुष्य अपने भीतर ही रहता, उसी प्रकार विष्णुभक्तिके प्रसादसे भेददृष्टि नहीं विराजमान भगवत्तत्वका अनुभव नहीं कर पाते। रहती। जैसे सूर्य सर्वत्र व्यापक है, अग्नि सब वस्तुओंमें पार्वती ! जैसे मूखौंको उपदेश देना व्यर्थ है, उसी प्रकार व्याप्त है, इन्हें किसी सङ्कचित सीमामें आवद्ध नहीं किया जो दूसरोंके भक्त है उनके लिये विष्णुभक्तिका उपदेश जा सकता, उसी प्रकार भक्तिमें स्थित भक्त भी कर्मोंसे निरर्थक है। जैसे अंधे मनुष्य आँख न होनेके कारण आबद्ध नहीं होता।
पास ही रखे हुए दीपक तथा दर्पणको नहीं देख पाते,
+ बुद्धि परेषां दास्यन्ति लोके बहुविधा जनाः । स्वयमाचरते सोऽपि नरः कोटिषु दृश्यते । (१२८ । ३६-३७) संध्यपु. २६