________________
उत्तरखण्ड ]
SUPARMARARR
• भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्य
********
*************
चाहिये। ऐसा करनेसे वे इस लोकमें समस्त भोगोंका उपभोग करके अन्तमें भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। यह शालग्रामशिला भगवान्की सबसे बड़ी मूर्ति है, जो पूजन करनेपर सदा पापका अपहरण करनेवाली और मोक्षरूप फल देनेवाली है। जहाँ शालग्रामशिला विराजती है, वहाँ गङ्गा, यमुना, गोदावरी और सरस्वती - सभी तीर्थ निवास करते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको इसका भलीभाँति पूजन करना चाहिये। देवेश्वरि ! जो भक्तिभावसे जनार्दनका पूजन करते हैं, उनके दर्शनमात्रसे ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है। पितर सदा यही बातचीत किया करते हैं कि हमारे कुलमें वैष्णव पुत्र उत्पन्न हों, जो हमारा उद्धार करके हमें विष्णुधाममें पहुँचा सकें। वही दिवस धन्य है, जिसमें भगवान् विष्णुका पूजन किया जाय और उसी पुरुषकी माता, बन्धुबान्धव तथा पिता धन्य हैं, जो श्रीविष्णुकी अर्चना करता है। जो लोग भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर रहते हैं, उन सबको परम धन्य समझना चाहिये। * वैष्णव पुरुषोंके दर्शनमात्रसे जितने भी उपपातक और महापातक हैं, उन सबका नाश हो जाता है। भगवान् विष्णुकी पूजामें संलग्र रहनेवाले मनुष्य अग्रिकी भाँति तेजस्वी प्रतीत होते हैं। वे मेघोंके आवरणसे उन्मुक्त चन्द्रमाकी भाँति सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। वैष्णवोंके पूजनसे बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। आई (स्वेच्छासे किया हुआ पाप), शुष्क (अनिच्छासे किया हुआ पाप), लघु और स्थूल, मन, वाणी तथा शरीरद्वारा किया हुआ, प्रमादसे होनेवाला तथा जानकर और अनजानमें ★
――――――
किया हुआ जो पाप है, वह सब वैष्णवोंके साथ वार्तालाप करनेसे नष्ट हो जाता है। साधु पुरुषोंके दर्शनसे पापहीन पुरुष स्वर्गको जाते हैं और पापिष्ठ मनुष्य पापसे रहित - शुद्ध हो जाते हैं। यह बिलकुल सत्य बात है। भगवान् विष्णुका भक्त पवित्रको भी पवित्र बनानेवाला तथा संसाररूपी कीचड़के दागको धो डालनेमें दक्ष होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
•
७८५
**************
जो विष्णुभक्त प्रतिदिन भगवान् मधुसूदनका स्मरण करते हैं, उन्हें विष्णुमय समझना चाहिये। उनके विष्णुरूप होनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है। भगवान्के श्रीविग्रहका वर्ण नूतन मेघोंकी नील घटाके समान श्याम एवं सुन्दर है। नेत्र कमलके समान विकसित एवं विशाल हैं। वे अपने हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं। शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। वक्षःस्थल कौस्तुभमणिसे देदीप्यमान है। श्रीहरि गलेमें वनमाला धारण किये हुए हैं। कुण्डलोंकी दिव्य ज्योतिसे उनके कपोल और मुखकी कान्ति बहुत बढ़ गयी है। किरीटसे मस्तक सुशोभित है। कलाइयोंमें कंगन, बाँहोंमें भुजबंद और चरणोंमें नूपुर शोभा दे रहे हैं। मुख-कमल प्रसन्नतासे खिला हुआ है। चार भुजाएँ हैं और साथमें भगवती लक्ष्मीजी विराजमान हैं। पार्वती जो ब्राह्मण भक्तिभावसे युक्त हो इस प्रकार श्रीविष्णुका ध्यान करते हैं, वे साक्षात् विष्णुके स्वरूप हैं। वे ही वास्तवमें वैष्णव हैं— इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। देवेश्वरि ! उनका दर्शनमात्र करनेसे, उनमें भक्ति रखनेसे, उन्हें भोजन करानेसे तथा उनकी पूजा करनेसे निश्चय ही वैकुण्ठधामकी प्राप्ति होती हैं।
=
* पितरः संवदन्त्येतत्कुलेऽस्माकं तु वैष्णवाः ॥
ये स्युस्तेऽस्मान्समुद्धृत्य नयन्ते विष्णुमन्दिरम् । स एव दिवसो धन्यो धन्या माताऽथ बान्धवाः ॥
पिता तस्य च वै धन्यो यस्तु विष्णुं समर्चयेत् । सर्वे धन्यतमा ज्ञेया विष्णुभक्तिपरायणाः ॥ (१२७ । १४ - १६) + संसारकर्दमालेपप्रक्षालनविशारदः ॥ पावनः पावनानां च विष्णुभक्तो न संशयः । (१२७ । २१-२२)
+ तेषी दर्शनमात्रेण भक्त्या या भोजनेन वा पूजनेन च देवेशि वैकुण्ठं लभते धुवम् ॥ (१२७ । २८)