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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
स्थापित कर रखा है। महेश्वरि! ये तीर्थ स्मरणमात्रसे लोगोंके पापों का नाश करनेवाले हैं। फिर जो वहाँ श्राद्ध करते हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है। ओङ्कार तीर्थ, पितृतीर्थ, कावेरी नदी, कपिलाका जल, चण्डवेगाका साश्रमतीके साथ संगम तथा अमरकण्टक — इन तीर्थो में स्नान आदि करनेसे कुरुक्षेत्रकी अपेक्षा सौगुना पुण्य होता है। साभ्रमती और वार्त्रघ्नी नदीका जहाँ संगम हुआ है, वहाँ गणेश आदि देवताओंने तौर्थसंघकी स्थापना की है। इस प्रकार मैंने यहाँ संक्षेपसे साभ्रमती नदीमें तीर्थोके संगमका वर्णन किया है। विस्तारके साथ उनका वर्णन करनेमें बृहस्पति भी समर्थ नहीं हैं।
अतः इस तीर्थमें प्रयत्नपूर्वक स्नान करना चाहिये। सवेरे तीन मुहूर्तका समय प्रातःकाल कहलाता है। उसके बाद तीन मुहूर्ततक पूर्वाह्न या सङ्गयकाल होता है। इन दोनों कालोंमें तीर्थके भीतर किया हुआ स्नान आदि देवताओंको प्रीतिदायक होता है। तत्पश्चात् तीन मुहूर्ततक मध्याह्न है और उसके बादका तीन मुहूर्त अपराह्न कहलाता है। इसमें किया हुआ स्नान, पिण्डदान और तर्पण पितरोंकी प्रसन्नताका कारण होता है। तदनन्तर तीन मुहूर्त्तका समय सायाह माना गया है। उसमें तीर्थस्नान नहीं करना चाहिये। वह राक्षसी बेला है, जो सभी कर्मों में निन्दित है। दिन-भरमें कुल पंद्रह मुहूर्त बताये गये हैं। उनमें जो आठवाँ मुहूर्त है, वह कुतप काल माना गया है। उस समय पितरोंको पिण्डदान करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। मध्याह्नकाल, नेपालका कम्बल, चाँदी, कुश, गौ, दौहित्र (पुत्रीका पुत्र) और तिल - ये कुतप कहलाते हैं। 'कु' नाम है पापका, उसको सन्ताप देनेवाले होनेके कारण ये कुतपके नामसे विख्यात हैं। कुतप मुहूर्तके बाद चार मुहूर्ततक कुल पाँच मुहूर्तका समय श्राद्धके लिये उत्तम समय माना गया है। कुश और काले तिल श्राद्धकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रकट हुए हैं—ऐसा देवताओंका कथन है। तीर्थवासी पुरुष जलमें खड़े हो हाथमें कुश लेकर तिलमिश्रित जलकी अञ्जलि पितरोंको दें। ऐसा करनेसे श्राद्धमें बाधा नहीं आती।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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पार्वती! इस प्रकार मैने साभ्रमती नदीमें नामोच्चारणपूर्वक तीर्थोका प्रवेश कराकर उसे महर्षि कश्यपको दिया था। कश्यप मेरे प्रिय भक्त हैं, इसलिये उन्हें मैंने यह पवित्र एवं पापनाशिनी गङ्गा प्रदान की थी। महाभागे ! साभ्रमतीके तटपर ब्रह्मचारितीर्थ है। वहाँ उसी नामसे मैंने अपनेको स्थापित कर रखा है। सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये मैं वहाँ ब्रह्मचारीश नामसे निवास करता हूँ। साभ्रमती नदीके किनारे ब्रह्मचारीश शिवके पास जाकर भक्त पुरुष यदि कलियुगमें विशेषरूपसे पूजा करे तो इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें महान् शिवधामको प्राप्त होता है। उनके स्थानपर जाकर जो जितेन्द्रिय भावसे उपवास करता और रात्रिमें स्थिर भावसे रहकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करता है, उसे मैं योगीरूपसे दर्शन देता हूँ तथा उसकी समस्त मनोगत कामनाओंको भी पूर्ण करता हूँ-यह बिलकुल सच्ची बात है। पार्वती! वहाँ मेरा कोई लिङ्ग नहीं है, मेरा स्थानमात्र है। जो विद्वान् वहाँ फूल, धूप तथा नाना प्रकारका नैवेद्य अर्पण करता है, उसे निश्चय ही सब कुछ प्राप्त होता है जो मेरे स्थानपर आकर बिल्वपत्र, पुष्प तथा चन्दन आदिसे मेरी पूजा करते हैं, उन्हें मैं सब कुछ देता हूँ। दर्शनसे रोग नष्ट होता है, पूजा करनेसे आयु प्राप्त होती है तथा वहाँ स्रान करनेसे मनुष्य निश्चय ही मोक्षका भागी होता हैं।
सुन्दरि ! सुनो, अब मैं राजखड्ग नामक परम अद्भुत तीर्थका वर्णन करता हूँ, जो साभ्रमती नदीके तीर्थोंमें विशेष विख्यात है। सूर्यवंशमें उत्पन्न एक वैकर्तन नामक राजा था, जो दुराचारी, पापात्मा, ब्राह्मण निन्दक, गुरुद्रोही, सदा असन्तुष्ट रहनेवाला, समस्त कर्मोकी निन्दा करनेवाला, सदा परायी स्त्रियोंमें प्रीति रखनेवाला और निरन्तर श्रीविष्णुकी निन्दा करनेवाला था। वह बहुत से प्राणियोंका घातक था और अपनी प्रजाको सदा पीड़ा दिया करता था। इस प्रकार दुष्टात्मा राजा वैकर्तन इस पृथ्वीपर राज्य करता था। कुछ कालके पश्चात् दैवयोगसे अपने पापके कारण वह कोढ़ी हो गया। अपने शरीरको दुर्दशा देखकर वह बार-बार