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• अचंयस्व नषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
समस्त पतित प्राणी साभ्रमतीके जलका स्पर्श करनेमात्रसे जहाँ सब पापोंका नाश करनेवाली त्रिलोकविख्यात श्वेता शुद्ध हो जाते हैं। जो मनुष्य वहाँ भक्तिपूर्वक श्राद्ध करता नदी प्रवाहित होती है। वह नदी मेरे अङ्गोंमें लगे हुए है, उसके पितर तृप्त होकर परमपदको प्राप्त होते हैं। भस्मके संयोगसे प्रकट हुई थी, इसलिये देवताओंद्वारा । तदनन्तर महर्षि कश्यपके उपदेशसे साश्रमती नदी सम्मानित हुई। उसमें स्रान करके पवित्र और जितेन्द्रिय ब्रह्मर्षियों द्वारा सेवित विकीर्ण वनमें आयी । उसका प्रबल भावसे वहाँ तीन रात निवास करनेवाला पुरुष वेगसे बहता जल पर्वतोंसे टकराकर सात भागोंमें महाकालेश्वरका दर्शन करनेसे रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता विभक्त हो गया । उन सभी धाराओंसे युक्त साभ्रमती नदी है। जो श्वेताके तटपर कुश और तिलोके साथ पितरोंको दक्षिण-समुद्रमें मिली है। पहली धारा परम पवित्र पिण्डदान करता है, उसके पितर पूर्ण तृप्त हो जाते हैं। साभ्रमती नामसे ही विख्यात हुई। दूसरीका नाम श्वेता है, श्वेतगङ्गा परम पुण्यमयी और दुःख एवं दरिद्रताको दूर तीसरी बकुला या वल्कला और चौथी हिरण्मयी करनेवाली है। पार्वती ! मैं उसके पवित्र संगममें नित्य कहलाती है। पाँचवी धाराका नाम हस्तिमती है, जो सब निवास करता हूँ। उसमें जो नान और दान करते हैं, पापोंका नाश करनेवाली बतायी गयी है। छठी धारा उन्हें उसका अक्षय फल प्राप्त होता है। जो नरश्रेष्ठ वहाँ वेत्रवतीके नामसे विख्यात है, जिसे पूर्वकालमें वृत्रासुरने धूप, फूल, माला और आरती निवेदन करते हैं, वे उत्पन्न किया था। यह श्रेष्ठ देवी वृत्रकूपसे निकली थी, पुण्यात्मा है। जो बिल्वपत्र लेकर श्वेताके किनारे शिवके इसीलिये इसका नाम वेत्रवती हुआ। यह बड़े-बड़े ऊपर चढ़ाता है, वह मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता है। पापोंका नाश करनेवाली है। सातवीं धाराका नाम यहाँसे तीर्थ-यात्री पुरुष गणतीर्थको जाय । वह तीर्थ भद्रामुखी तथा सुभद्रा है। यह सम्पूर्ण जगत्को पवित्र चन्दना नदीके तटपर है। शिवगणोंने उसका नाम त्रिविष्टप करनेवाली है। इन सातों धाराओंसे भिन्न-भिन्न देशोंको रखा है। पूर्णिमाको एकाग्रचित्त हो त्रिविष्टप तीर्थमें स्नान पवित्र करती हुई एक ही साश्रमती नदी 'सप्तस्रोता' के करके मनुष्य ब्रह्महत्या-जैसे पापसे मुक्त हो जाता है । जो रूपमें प्रतिष्ठित हुई है। जो विकीर्ण तीर्थमें पितरोंके वर्षाके चार महीनोंमें वहाँ निवास करता है, वह महान् उद्देश्यसे श्राद्ध एवं दान करता है, उसे गया पिण्डदान सौभाम्यशाली एवं पवित्र होकर रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता करनेका फल प्राप्त होता है। जो धर्मभ्रष्ट होनेके कारण है। कृष्णपक्षको अष्टमीको गणतीर्थ में स्नान करके जो सद्गतिसे वञ्चित हैं, जिनकी पिण्ड और जलदानकी उपवास करता है तथा बकुलासंगममें गोता लगाता है, क्रिया लुप्त हो गयी है, वे भी विकीर्ण तीर्थमें पिण्डदान वह मानव स्वर्गलोकमें जाता है। उस तीर्थमें स्रान करके
और जलदान करनेपर मुक्त हो जाते है। अतः वेदत्रयीकी बकुलेश्वरका दर्शन करनेसे मनुष्य गणेशजीके प्रसादसे विधिके अनुसार यहाँ श्रद्धापूर्वक श्राद्धका अनुष्ठान गणपतिपदको प्राप्त होता है । यहाँ परम पराक्रमी चन्द्रवंशी करना चाहिये। इस तीर्थमें कश्यपजीने ब्राह्मणोंको राजा विश्वदत्तने दीर्घकालतक बड़ी भारी तपस्या की थी संबोधित करके कहा था-'द्विजवरो! यदि तुम्हें और श्रीगणेशजीके प्रसादसे गणपतिपदको प्राप्त किया ऋषिलोक प्राप्त करनेकी इच्छा है तो इस विकीर्ण तीर्थमें, था। महेश्वरि ! वसिष्ठ, वामदेव, कहोड, कौषीतक, जहाँ सात नदियोंका उद्गम हुआ है, विशेष रूपसे स्रान भारद्वाज, अङ्गिरा, विश्वामित्र तथा वामन-ये पुण्यात्मा करो।' यदि यहाँ स्रान किया जाय तो सब दुःखोंका नाश मुनि श्रीगणेशजीकी कृपासे सदा ही इस तीर्थका सेवन हो जाता है। यह विकीर्ण तीर्थ सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ तथा करते हैं। इसके सेवनसे पुत्रहीनको पुत्र, धनहीनको धन, क्षेत्रों में परम उत्तम है। यह शुभगति प्रदान करनेवाला विद्याहीनको विद्या और मोक्षार्थीको मोक्ष प्राप्त होता है। तथा रोग और दोषका निवारण करनेवाला है। जो यहाँ सान अथवा पूजन करता है, वह सब पापोसे
विकीर्ण तीर्थके बाद श्वेतोद्भव नामक उत्तम तीर्थ है, मुक्त हो विष्णुके परमपदको प्राप्त होता है।