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उत्तरखण्ड ]
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• भगवत्स्मरणका प्रकार, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष •
जाती है। जैसा भाव रहता है वैसा ही फल होता है। जिसकी जैसी बुद्धि होती है, वह जगत्को वैसा ही समझता है।
वैकुण्ठनाथको छोड़कर भक्त पुरुष दूसरे मार्गमें कैसे रम सकेगा ? भक्तिहीन होकर चारों वेदोंके पढ़नेसे क्या लाभ? भक्तियुक्त चाण्डाल ही क्यों न हो, वह देवताओं द्वारा भी पूजित होता है। * जिस समय श्रीहरिके स्मरणजनित प्रसन्नतासे शरीरमें रोमाञ्च हो जाय और नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहने लगें, उस समय मुक्ति दासी बन जाती है। वाणीद्वारा किये हुए पापका भगवान् के कीर्तनसे और मनद्वारा किये हुए पापका उनके स्मरणसे नाश हो जाता है।
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बँधा हुआ जीव सुख और दुःखकी अवस्थाओंमें ले जाया जाता है। प्रारब्ध कर्मसे बँधा हुआ जीव अपने बन्धनको दूर करनेमें समर्थ नहीं होता। देवता और ऋषि भी कर्मोसे बँधे हुए हैं। कैलास पर्वतपर मुझ महादेवके शरीरमें स्थित सर्प भी विषके ही भागी होते हैं; क्योंकि कर्मानुसार प्राप्त हुई योनि बड़ी ही प्रबल है। विद्वान् पुरुष कहते हैं कि सूर्य सुन्दर शरीर प्रदान करनेवाले हैं; परन्तु उनके ही रथका सारथि पशु है। वास्तवमें कर्मयोनि बड़ी ही प्रबल है। पूर्वकालमें भगवान् विष्णुद्वारा निर्मित सम्पूर्ण जगत् कर्मके अधीन है और वह कर्म श्रीकेशवके अधीन है। श्रीरामनामके जपसे उसका नाश होता है। कोई देवताओंकी प्रशंसा करते हैं, कोई ओषधियोंकी महिमाके गीत गाते हैं, कोई मन्त्र और उसके द्वारा प्राप्त सिद्धिकी महत्ता बतलाते हैं और कोई बुद्धि, पराक्रम, उद्यम, साहस, धैर्य, नीति और बलका बखान करते हैं; परन्तु मैं कर्मकी प्रशंसा करता हूँ; क्योंकि सब लोग कर्मके ही पीछे चलनेवाले हैं - यह मेरा निश्चित विचार है तथा पूर्वकालके विद्वानोंने भी इसका समर्थन किया है।
कुछ लोग क्रोधमें आकर सर्वस्व त्याग देते हैं, कोई-कोई अभाववश सब कुछ छोड़ते हैं तथा कुछ लोग बड़े कष्टसे सबका त्याग करते हैं। ये सभी त्याग मध्यम श्रेणीके हैं। अपनी बुद्धिसे खूब सोच-विचारकर और क्रोध आदिके वशीभूत न होकर श्रद्धापूर्वक त्याग करना चाहिये। जो लोग इस प्रकार सर्वस्वका त्याग करते हैं, उन्हींका त्याग उत्तम माना गया है। योगाभ्यासमें तत्पर हुआ मनुष्य यदि उसमें पूर्णता न प्राप्त कर सके, अथवा प्रारब्ध कर्मकी प्रेरणासे वह साधनसे विचलित हो जाय तो भी वह उत्तम गतिको ही प्राप्त होता है। योगभ्रष्ट पुरुष पवित्र आचरणवाले श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है अथवा ज्ञानवान् योगियोंके यहाँ द्विजकुलमें जन्म ग्रहण करता है तथा वहाँ थोड़े ही समयमें पूर्ण योगसिद्धि प्राप्त कर लेता है। तत्पश्चात् वह योग एवं
: ब्रह्माजीने सम्पूर्ण वर्णोंको उत्पन्न किया और उन्हें अपने-अपने धर्ममें लगा दिया। अपने धर्मके पालनसे प्राप्त हुआ धन शुरू द्रव्य अर्थात् विशुद्ध धन कहलाता है। शुद्ध धनसे श्रद्धापूर्वक जो दान दिया जाता है, उसमें थोड़े दानसे भी महान् पुण्य होता है। उस पुण्यकी कोई गणना नहीं हो सकती। नीच पुरुषोंके सङ्गसे जो धन आता हो, उस धनसे मनुष्यके द्वारा जो दान किया जाता है, उसका कुछ फल नहीं होता। उस दानसे वे मानव पुण्यके भागी नहीं होते। जो इन्द्रियोंको सुख देनेकी इच्छासे ही कर्म करता है, वह ज्ञान-दुर्बल मूढ़ पुरुष अपने कर्मके अनुसार योनिमें जन्म लेता है। मनुष्य इस लोकमें जो कर्म करता है, उसे परलोकमें भोगना पड़ता है। पुण्यकर्म करनेवाले पुरुषको निश्चय ही कभी दुःख नहीं होता। यदि पुण्य करते समय शरीरमें कोई कष्ट हो तो उसे पूर्व जन्ममें किये हुए कर्मका फल समझकर दुःख नहीं मानना चाहिये। पापाचारी पुरुषको सदा दुःख ही दुःख मिलता है। यदि उस समय उसे कुछ सुख प्राप्त हुआ हो तो उसे पूर्व कर्मका फल समझना चाहिये और उसपर हर्षसे फूल नहीं उठना चाहिये। जैसे स्वामी रस्सीमें बँधे हुए पशुको अपनी इच्छाके अनुसार इधर-उधर ले जाया करता है, उसी प्रकार कर्मबन्धनमें
भक्तिहीनैश्चतुर्वेदः पठितैः किं प्रयोजनम्। श्वपचो भक्तियुक्तस्तु त्रिदशैरपि पूज्यते । (१२८ । १०२)