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अवयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
भक्ति प्रसादसे चिदानन्दमय पदको प्राप्त होता है। जैसे कीचड़से कीचड़ तथा रक्तसे रक्तको नहीं धोया जा सकता, उसी प्रकार हिंसाप्रधान यज्ञ कर्मसे कर्मजनित मल कैसे धोया जा सकता है। हिंसायुक्त कर्ममय सकाम यज्ञ कर्मबन्धनका नाश करनेमें कैसे समर्थ हो सकता है। स्वर्गकी कामनासे किये हुए यज्ञ स्वर्गलोकमें अल्प सुख प्रदान करनेवाले होते हैं। कर्मजनित सुख अधिक मात्रामें हों तो भी वे अनित्य ही होते हैं; उनमें नित्य सुख है ही नहीं। भगवान् श्रीहरिकी भक्तिके बिना कहीं भी नित्य सुख नहीं मिलता ।
जो भगवान् सृष्टि करते हैं, वे ही संहारकारी और पालक कहलाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ! मैं सैकड़ों
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अपराधोंसे युक्त हूँ। मुझे यहाँसे अपने परमधाममें ले चलिये मुझ अपराधीपर कृपा कीजिये। आपने व्याधको मोक्ष दिया है, कुब्जाको तारा है [मुझपर भी कृपादृष्टि कीजिये] योगीजन सदा आपकी महिमाका गान करते हैं। आप परमात्मा, जनार्दन, अविनाशी पुरुष और लक्ष्मीसे सम्पन्न हैं। आपका दर्शन करके कितने ही भक्त आपके परमपदको प्राप्त हो गये। जो लोग इस दिव्य विष्णुस्मरणका प्रतिदिन पाठ करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके सनातन धाममें जाते हैं। जो भगवान् विष्णु के समीप भक्तिभावसे भावित बुद्धिद्वारा इसका पाठ करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होते हैं।
=★ पुष्कर आदि तीर्थोंका वर्णन
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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श्रीमहादेवजी बोले- सुरेश्वरि ! इस द्वीपमें सबके शोंका नाश करनेवाले महान् देवता भगवान् केशव ही तीर्थरूपसे विराजमान हैं। देवि! अब मैं तुम्हारे लिये उन तीर्थोका वर्णन करता हूँ। पहला पुष्कर तीर्थ है, जो सब तीथोंमें श्रेष्ठ और शुभकारक है। दूसरा क्षेत्र काशीपुरी हैं, जो मुक्ति प्रदान करनेवाली है। तीसरा नैमिष क्षेत्र है, जिसे ऋषियोंने परम पावन माना है। चौथा प्रयाग तीर्थ है, जो सब तीर्थों में उत्तम माना गया है। पाँचवाँ कामुक तीर्थ है, जिसकी उत्पत्ति गन्धमादन पर्वतपर बतायी गयी है। छठा मानसरोवर तीर्थ है, जो देवताओंको भी अत्यन्त रमणीय प्रतीत होता है। सातवाँ विश्वकाय तीर्थ है, उसकी स्थिति कल्याणमय अम्बर पर्वतपर बतायी गयी है। आठवाँ गौतम नामक तीर्थ है, जिसकी स्थापना पूर्वकालमें मन्दराचल पर्वतपर हुई थी। नवाँ मदोत्कट और दसवाँ रथचैत्रक तीर्थ है। ग्यारहवाँ कान्यकुब्ज तीर्थ है, जहाँ भगवान् वामन विराज रहे हैं। बारहवाँ मलयज तीर्थ है। इसके बाद कुब्जाम्रक, विश्वेश्वर, गिरिकर्ण, केदार और गतिदायक तीर्थ हैं।
श्रीपार्वतीजीने कहा-सुव्रत! इस द्वीपमें हिमालयके पृष्ठभाग में बाह्य तीर्थ, गोकर्णमें गोपक, जो-जो तीर्थ हैं, उनकी गणना करके मुझे बताइये । हिमालयपर स्थानेश्वर, बिल्वकमें विल्वपत्रक, श्रीशैलमें माधव तीर्थ, भद्रेश्वरमें भद्र तीर्थ, वाराहक्षेत्रमें विजय तीर्थ, वैष्णवगिरिपर वैष्णव तीर्थ, रुद्रकोटमें रुद्र तीर्थ, कालञ्जर पर्वतपर पितृतीर्थ, कम्पिलमै काम्पिल तीर्थ, मुकुटमें ककोटक, गण्डकीमें शालग्रामोद्भव तीर्थ, नर्मदामें शिवतीर्थ, मायापुरीमें विश्वरूप तीर्थ, उत्पलाक्षमें सहस्राक्ष तीर्थ, रैवतक पर्वतपर जात तीर्थ, गयामें पितृतीर्थ और विष्णुपादोद्भव तीर्थ, विपाशा (व्यास) में विपाप, पुण्ड्र वर्धनमें पाटल, सुपार्श्व में नारायण, त्रिकूटमें विष्णुमन्दिर, विपुलमें विपुल, मलयाचलमें कल्याण, कोटितीर्थमें कौरव, गन्धमादनमें सुगन्ध, कुब्जाङ्कमें त्रिसन्ध्य, गङ्गाद्वारमें हरिप्रिय, विश्यप्रदेशमें शैल तीर्थ, बदरिकाश्रममें शुभ सारस्वत तीर्थ, कालिन्दीमें कालरूप, सह्य पर्वतपर साह्यक और चन्द्रप्रदेशमें चन्द्र तीर्थ है।
महाकालमें महेश्वर तीर्थ, विन्ध्य पर्वतकी कन्दरामें अभयद और अमृत नामक तीर्थ, मण्डपमें विश्वरूप तीर्थ, ईश्वरपुरमें स्वाहा तीर्थ, प्रचण्डामें वैगलेय तीर्थ, अमरकण्टकमें चण्डी तीर्थ, प्रभासक्षेत्रमें सोमेश्वर तीर्थ, सरस्वतीमें पारावत तटपर देवमातृ तीर्थ, महापद्ममें