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उत्तरखण्ड ]
• पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा .
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दोनों भक्तोंमें जो विष्णुदास थे, वे तो पुण्यशील नामसे करके सर्वत्र समान दृष्टि रखो । तुला, मकर और मेषकी
संक्रान्ति में सदा प्रातःस्नान किया करो । एकादशीके व्रतमें लगे रहो और तुलसीवनकी रक्षा करते रहो। ब्राह्मणों, गौओं तथा वैष्णवोंकी सदा ही सेवा करो। मसूर, कांजी
और बैंगन खाना छोड़ दो। धर्मदत्त ! ऐसा करनेसे तुम भी शरीरका अन्त होनेपर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त करोगे। जैसे हमलोगोंने भगवान्की भक्तिसे ही उन्हें पाया है, उसी प्रकार तुम भी उन्हें प्राप्त कर लोगे। तुमने जन्पसे लेकर अबतक जो श्रीविष्णुको संतुष्ट करनेवाला यह व्रत किया है, इससे यज्ञ, दान और तीर्थ भी बड़े नहीं हैं। विप्रवर ! तुम धन्य हो; क्योंकि तुमने जगद्गुरु भगवान् श्रीविष्णुको प्रसन्न करनेवाले इस व्रतका अनुष्ठान किया है; जिसके एक भागका पुण्य पाकर ही
प्रेतयोनिमें पड़ी हुई कलहा मुक्त हो गयी। अब हमलोग KEETTENALI
इसे भगवान् विष्णुके लोकमें ले जा रहे है।
नारदजी कहते हैं-राजन् ! इस प्रकार विमानपर
21 बैठे हुए विष्णुके दूतोंने धर्मदत्तको उपदेश देकर कलहाके प्रसिद्ध भगवान्के पार्षद हुए तथा जो राजा चोल थे, साथ वैकुण्ठधामकी यात्रा की । तत्पश्चात् धर्मदत्त भी पूर्ण उनका नाम सुशील हुआ। हम वे ही दोनों हैं। विश्वासके साथ उस व्रतमें लगे रहे और शरीरका अन्त लक्ष्मीजीके प्रियतम श्रीहरिने हमें अपने समान रूप देकर होनेपर अपनी दोनों पत्रियोंके साथ वे भगवान्के अपना द्वारपाल बना लिया है।
परमधामको चले गये। जो पुरुष इस प्राचीन इतिहासको " इसलिये धर्मज्ञ ब्राह्मण ! तुम भी सदा भगवान् सुनता और सुनाता है, वह जगद्गुरु भगवानकी कृपासे विष्णुके व्रतमें स्थित रहो। मात्सर्य और दम्भका परित्याग उनका सान्निध्य प्राप्त करानेवाली उत्तम गति पाता है।
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पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-प्रिये ! यह कथा हैं।* जो अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर इन सबका सुनकर राजा पृथुके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सेवन करता है, वह मुझे बहुत ही प्रिय होता है। यज्ञ भक्तिपूर्वक देवर्षि नारदका पूजन करनेके पश्चात् उन्हें आदिके द्वारा भी कोई मेरा ऐसा प्रिय नहीं हो सकता, विदा किया। इसलिये माघस्नान, कार्तिकस्नान तथा जैसा कि पूर्वोक्त चारोंके सेवनसे होता है। एकादशी-ये तीनों व्रत मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। सत्यभामा बोलीं-नाथ ! आपने मुझे जो कथा वनस्पतियोंमें तुलसी, महीनोंमें कार्तिक, तिथियोंमें सुनायी है, वह बड़े ही आश्चर्यमें डालनेवाली है। क्योंकि एकादशी तथा पुण्य-क्षेत्रोंमें द्वारकापुरी मुझे विशेष प्रिय कलहा दूसरेके दिये हुए पुण्यसे ही मुक्ति पा गयी। इस
* वनस्पतीनां तुलसी मासाना कार्तिकः प्रियः । एकादशी तिथीनां च क्षेत्राणां द्वारका मम ॥ (११४ । ३)