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उत्तरखण्ड ] .
. कार्तिक-माहात्म्यके प्रसङ्गमें राजा बोल और विष्णुदासकी कथा .
दुबारा भोजन नहीं बनाया; क्योंकि ऐसा करनेपर यों सोचकर भोजन बनानेके पश्चात् वे वहीं कहीं सायंकालकी पूजाके लिये अवकाश नहीं मिलता, अतः छिपकर खड़े हो गये। इतनेमें ही एक चाण्डाल दिखायी प्रतिदिनके नियमके भंग हो जानेका भय था। दूसरे दिन दिया, जो रसोईका अन्न हड़प ले जानेको तैयार खड़ा उसी समयपर भोजन बनाकर वे ज्यों ही भगवान् था। भूखके मारे उसका सारा शरीर दुर्बल हो रहा था, विष्णुको भोग लगानेके लिये गये, त्यो हो कोई आकर मुखपर दीनता छा रही थी, शरीरमें हाड़ और चामके फिर सारा भोजन हड़प ले गया। इस प्रकार लगातार सिवा और कुछ बाकी नहीं बचा था। उसे देखकर श्रेष्ठ सात दिनोंतक कोई आ-आकर उनके भोजनका अपहरण ब्राह्मण विष्णुदासका हृदय करुणासे व्यथित हो उठा। करता रहा। इससे विष्णुदासको बड़ा विस्मय हुआ। वे उन्होंने भोजन लेकर जाते हुए चाण्डालपर दृष्टि डाली मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगे--'अहो ! यह और कहा-'भैया ! जरा ठहरो, ठहरो। क्यों रूखाकौन प्रतिदिन आकर मेरी रसोई चुरा ले जाता है? मैं सूखा खाते हो। यह घी तो ले लो।' इस तरह बोलते क्षेत्र-संन्यास ले चुका हूँ, अतः अब किसी तरह इस हुए विप्रवर विष्णुदासको आते देख चाण्डाल बड़े वेगसे स्थानका परित्याग नहीं कर सकता। यदि दुबारा बनाकर भागा और भयस मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। चाण्डालको भोजन करूं तो सायंकालकी यह पूजा कैसे छोड़ दूं। भयभीत और मूर्छित देख द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास वेगसे कोई-सा भी पाक बनाकर मैं तुरंत भोजन तो करूंगा ही चलकर उसके पास पहुंचे और करुणावश अपने वस्त्रके नहीं, क्योंकि जबतक सारी सामग्री भगवान् विष्णुको किनारेसे उसको हवा करने लगे। तदनन्तर जब वह निवेदन न कर लूँ तबतक मैं भोजन नहीं करता। उठकर खड़ा हुआ तो विष्णुदासने देखा-वह चाण्डाल प्रतिदिन उपवास करनेसे मैं इस व्रतकी समाप्तितक नहीं, साक्षात् भगवान् नारायण ही शङ्ख, चक्र और गदा जीवित कैसे रह सकता हूँ। अच्छा, आज मैं रसोईकी धारण किये सामने विराजमान हैं। कटिमें पीताम्बर, चार भलीभाँति रक्षा करूंगा।
भुजाएँ, हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न तथा मस्तकपर किरीट