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उत्तरखण्ड ]
. कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करने योग्य नियम •
महादेवजीने कहा-एक ओर सम्पूर्ण तीर्थ, भगवान् श्रीकृष्णने कहा-प्रिये ! गोधूलिद्वारा समस्त दान, दक्षिणाओसहित यज्ञ, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, किया हुआ स्नान वायव्य कहलाता है, सागर आदि
जलाशयोंमें किये हुए स्रानको वारुण कहते हैं, 'आपो हि ष्ठा मयो' आदि ब्राह्मण-मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक जो मार्जन किया जाता है, उसका नाम ब्राह्म है तथा बरसते हुए मेघके जल और सूर्यकी किरणोंसे शरीरकी शुद्धि करना दिव्य सान माना गया है। सब प्रकारके स्नानोंमें वारुणस्रान श्रेष्ठ है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मन्त्रोचारणपूर्वक स्रान करें। परन्तु शूद्र और स्त्रियोंके लिये बिना मन्त्रके ही सानका विधान है। बालक, युवा, वृद्ध, पुरुष, स्त्री और नपुंसक-सब लोग कार्तिक और माघमें प्रातःस्नानकी प्रशंसा करते हैं। कार्तिकमें प्रातःकाल स्नान करनेवाले लोग मनोवाञ्छित फल प्राप्त करते हैं।
कार्तिकेयजी बोले-पिताजी ! अन्य धर्मोका भी वर्णन कीजिये, जिनका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य अपने समस्त पाप धोकर देवता बन जाता है।
महादेवजीने कहा-बेटा ! कार्तिक मासको
More उपस्थित देख जो मनुष्य दूसरेका अन्न त्याग देता है, वह हिमालय, अक्रूरतीर्थ, काशी और शूकरक्षेत्रमें निवास प्रतिदिन कृच्छ्वतका फल प्राप्त करता है। कार्तिकमें तेल, तथा दूसरी ओर केवल कार्तिक मास हो, तो वही मधु, काँसेके वर्तनमें भोजन और मैथुनका विशेषरूपसे भगवान् केशवको सर्वदा प्रिय है। जिसके हाथ, पैर, परित्याग करना चाहिये। एक बार भी मांस भक्षण करनेसे वाणी और मन वशमें हो तथा जिसमें विद्या, तप और मनुष्य राक्षसकी योनिमें जन्म पाता है और साठ हजार कीर्ति विद्यमान हों, वही तीर्थके पूर्ण फलको प्राप्त करता वर्षातक विष्ठामें डालकर सड़ाया जाता है । उससे छुटकारा है। श्रद्धारहित, नास्तिक, संशयालु और कोरी पानेपर वह पापी विष्ठा खानेवाला ग्राम-शूकर होता है। तर्कबुद्धिका सहारा लेनेवाले मनुष्य तीर्थसेवनके कार्तिक मासमें शास्त्रविहित भोजनका नियम करनेपर फलभागी नहीं होते। जो ब्राह्मण सबेरे उठकर सदा अवश्य ही मोक्ष प्राप्त होता है। भगवान् विष्णुका प्रातःस्रान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो परमात्माको परमधाम ही मोक्ष है। कार्तिकके समान कोई मास नहीं है, प्राप्त होता है। षडानन ! सानका महत्त्व जाननेवाले श्रीविष्णुसे बढ़कर कोई देवता नहीं है, वेदके तुल्य कोई पुरुषोंने चार प्रकारके स्रान बतलाये है-वायव्य, शास्त्र नहीं है, गङ्गाके समान कोई तीर्थ नहीं है, सत्यके वारुण, ब्राहा और दिव्य।
समान सदाचार, सत्ययुगके समान युग, रसनाके तुल्य यह सुनकर सत्यभामा बोली-प्रभो ! मुझे तृप्तिका साधन, दानके सदृश सुख, धर्मक समान मित्र चारों स्नानोंके लक्षण बतलाइये।
और नेत्रके समान कोई ज्योति नहीं है।*
........... । प्रवृतानां तु भक्षाणां कार्तिके नियमे कृते ।। अवश्य प्राप्यते मोक्षो विष्णोस्तत्परमं पदम् । न कार्तिकसमो मासो न देवः केशवात्परः ॥