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• अर्चयस्य हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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अधिकार नहीं है । तथापि तुम्हारी ग्लानि देखकर मेरे मनमे वह श्रीविष्णुके समान रूप धारण करनेवाले पार्षदोंसे युक्त बड़ा दुःख हो रहा है। तुम दुःखिनी हो, तुम्हारा उद्धार किये था। पास आनेपर विमानके द्वारपर खड़े हुए पुण्यशील बिना मेरे चित्तको शान्ति नहीं मिलेगी; अतः मैंने जन्मसे और सुशील नामक पार्षदोंने उस देवीको विमानपर चढ़ा लेकर आजतक जो कार्तिक-व्रतका अनुष्ठान किया है, लिया। उस समय उस विमानको देखकर धर्मदतको बड़ा उसका आधा पुण्य लेकर तुम उत्तम गतिको प्राप्त होओ। विस्मय हुआ। उन्होंने श्रीविष्णुरूपधारी पार्षदोंका दर्शन
यो कहकर धर्मदत्तने द्वादशाक्षर मन्त्रका श्रवण करके उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया । ब्राह्मणको प्रणाम करते कराते हुए तुलसीमिश्रित जलसे ज्यों ही उसका अभिषेक देख पुण्यशील और सुशीलने उन्हें उठाया और उनकी किया, त्यों ही वह प्रेत-शरीरसे मुक्त हो दिव्यरूपधारिणी प्रशंसा करते हुए यह धर्मयुक्त वचन कहा। देवी हो गयी। धधकती हुई आगकी ज्वालाके समान दोनों पार्षद बोले-द्विजश्रेष्ठ ! तुम्हें धन्यवाद तेजस्विनी दिखायी देने लगी। लावण्यसे तो वह ऐसी है। क्योंकि तुम सदा भगवान् विष्णुकी आराधनामें
संलग्न रहते हो। दीनोंपर दया करनेका तुम्हारा स्वभाव | है। तुम धर्मात्मा और श्रीविष्णुव्रतका अनुष्ठान करनेवाले
हो। तुमने बचपनसे लेकर अबतक जो कल्याणमय कार्तिकका व्रत किया है, उसके आधेका दान करके दूना पुण्य प्राप्त कर लिया है। तुम बड़े दयालु हो, तुम्हारे द्वारा दान किये हुए कार्तिक-व्रतके अङ्गभूत तुलसीपूजन
आदि शुभ कर्मोके फलसे यह स्त्री आज भगवान् विष्णुके समीप जा रही है। तुम भी इस शरीरका अन्त होनेपर अपनी दोनों पत्रियोंके साथ भगवान् विष्णुके वैकुण्ठधाममें जाओगे और उन्हींक समान रूप धारण करके सदा उनके समीप निवास करोगे। धर्मदत्त ! जिन लोगोंने तुम्हारी ही भांति श्रीविष्णुकी भक्तिपूर्वक आराधना की है, वे धन्य और कृतकृत्य हैं; तथा संसारमें उन्हींका जन्म लेना सार्थक है। जिन्होंने पूर्वकालमें राजा उत्तानपादके पुत्र ध्रुवको ध्रुवपदपर स्थापित किया था,
उन श्रीविष्णुकी यदि भलीभाँति आराधना की जाय तो वे जान पड़ती थी, मानो साक्षात् लक्ष्मी हों । तदनन्तर उसने प्राणियोंको क्या नहीं दे डालते। भगवान्के नामोंका भूमिपर मस्तक टेककर ब्राह्मणदेवताको प्रणाम किया स्मरण करने मात्रसे देहधारी जीव सद्गतिको प्राप्त हो
और आनन्दविभोर हो गद्गदवाणीमें कहा- जाते हैं। पूर्वकालमें जब गजराजको ग्राहने पकड़ लिया 'द्विजश्रेष्ठ ! आपकी कृपासे मैं नरकसे छुटकारा पा था, उस समय उसने श्रीहरिके नामस्मरणसे ही संकटसे गयी। मैं पापके समुद्रमें डूब रही थी, आप मेरे लिये छुटकारा पाकर भगवानकी समीपता प्राप्त की थी और नौकाके समान हो गये।
वही अब भगवान्का 'जय' नामसे प्रसिद्ध पार्षद है। वह इस प्रकार ब्राह्मणदेवसे वार्तालाप कर ही रही थी तुमने भी श्रीहरिकी आराधना की है, अतः वे तुम्हें अपने कि आकाशसे एक तेजस्वी विमान उतरता दिखायी दिया। समीप अवश्य स्थान देंगे।
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