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. अत्रयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
कार्तिक-व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
राजा पृथुने कहा-मुनिश्रेष्ठ ! कार्तिकका व्रत हुलिया थी। उसे देखकर ब्राह्मण देवता भयसे थर्रा उठे। करनेवाले पुरुषके लिये जिस महान् फलकी प्राप्ति बतायी सारा शरीर कांपने लगा। उन्होंने साहस करके पूजाको गयी है, उसका वर्णन कीजिये। किसने इस व्रतका सामग्री तथा जलसे ही उस राक्षसीके ऊपर रोषपूर्वक अनुष्ठान किया था?
प्रहार किया। हरिनामका स्मरण करके तुलसीदलमिश्रित नारदजी बोले-राजन् ! पूर्वकालकी बात है, जलसे उसको मारा था, इसलिये उसका सारा पातक नष्ट सह्य पर्वतपर करवीरपुरमें धर्मदत्त नामके एक धर्मज्ञ हो गया। अब उसे अपने पूर्वजन्मके कर्मोके परिणामब्राह्मण रहते थे, जो भगवान् विष्णुका व्रत करनेवाले स्वरूप प्राप्त हुई दुर्दशाका स्मरण हो आया। उसने तथा भलीभांति श्रीविष्णु-पूजनमें सर्वदा तत्पर रहनेवाले ब्राह्मणको दण्डवत् प्रणाम किया और इस प्रकार कहाथे। वे द्वादशाक्षर मन्त्रका जप किया करते थे। 'ब्रह्मन् ! मैं पूर्वजन्मके कर्मोक कुपरिणामवश इस दशाको अतिथियोंका सत्कार उन्हें विशेष प्रिय था। एक दिन पहुंची हूँ। अब कैसे मुझे उत्तम गति प्राप्त होगी?' कार्तिक मासमें श्रीहरिके समीप जागरण करनेके लिये वे भगवान्के मन्दिरकी ओर चले। उस समय एक पहर रात बाकी थी। भगवान्के पूजनकी सामग्री साथ लिये जाते हुए ब्राह्मणने मार्ग में देखा, एक राक्षसी आ रही है।
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राक्षसीको अपने आगे प्रणाम करते तथा पूर्वजन्मके किये हुए कर्मोंका वर्णन करते देख ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ। वे उससे इस प्रकार बोले-'किस कर्मके फलसे
तुम इस दशाको पहुँची हो? कहाँसे आयी हो? तुम्हारा उसकी आवाज बड़ी डरावनी थी। टेढ़ी-मेढ़ी दाढ़ें, नाम क्या है ? तथा तुम्हारा आचार-व्यवहार कैसा है? ये लपलपाती हुई जीभ, धंसे हुए लाल-लाल नेत्र, नग्न सारी बातें मुझे बताओ।' शरीर, लंबे-लंबे ओठ और घर्घर शब्द-यही उसकी कलहा बोली-ब्रह्मन् ! मेरे पूर्वजन्मकी बात है,
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