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उत्तरखण्ड ]
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कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
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उत्तम व्रतका पालन करता है, वह निष्पाप एवं मुक्त होकर भगवान् विष्णुकी समीपता प्राप्त करता है। सम्पूर्ण व्रतों, तीर्थों और दानोंसे जो फल मिलता है, वही इस कार्त्तिकव्रतका विधिपूर्वक पालन करनेसे करोड़गुना होकर मिलता है। जो कार्त्तिक- व्रतका अनुष्ठान करते हुए भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर होते हैं, वे धन्य हैं, वे सदा पूज्य हैं तथा उन्हींके यहाँ सब प्रकारके शुभफलोंका उदय होता है। देहमें स्थित हुए पाप उस मनुष्यके भयसे काँप उठते हैं और आपसमें कहने लगते हैं— 'अरे ! यह तो कार्तिकका व्रत करने लगा, अब हम कहाँ जायेंगे। जो कार्त्तिक- व्रतके इन नियमोंको भक्तिपूर्वक सुनता तथा वैष्णव पुरुषके आगे इनका वर्णन करता है, वे दोनों ही उत्तम व्रत करनेका फल पाते हैं और उनका दर्शन करनेसे मनुष्योंके पापोंका नाश हो जाता है। नारदजी कहते हैं— राजन्! कार्तिक- व्रतके उद्यापनमें तुलसीके मूलप्रदेशमें भगवान् विष्णुकी पूजा की जाती है; क्योंकि तुलसी उनके लिये अत्यन्त प्रीतिदायिनी मानी गयी है। जिसके घरमें तुलसीका बगीचा लगा होता है, उसका वह घर तीर्थस्वरूप है। वहाँ यमराजके दूत नहीं जाते। तुलसीवन सब पापोंको हरनेवाला, पवित्र तथा मनोवाञ्छित भोगोंको देनेवाला है। जो श्रेष्ठ मानव तुलसीका वृक्ष लगाते हैं, वे कभी यमराजको नहीं देखते। नर्मदाका दर्शन, गङ्गाका स्नान और तुलसीवनके पास रहना—ये तीनों एक समान माने गये हैं। रोपने, रक्षा करने, सींचने तथा दर्शन और स्पर्श करनेसे तुलसी मन, वाणी और शरीरद्वारा किये हुए समस्त पापोंको भस्म कर डालती है। जो तुलसीकी मारियोंसे भगवान् विष्णु और शिवकी पूजा करता है, वह कभी गर्भमें नहीं आता तथा निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। पुष्कर आदि तीर्थ, गङ्गा आदि नदियाँ तथा वासुदेव आदि देवता - ये सभी तुलसीदलमें निवास करते हैं। नृपश्रेष्ठ ! जो तुलसीकी मञ्जरीसे संयुक्त होकर प्राणोंका परित्याग करता है, उसे श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त होता है—यह सत्य है, सत्य है। जो
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शरीरमें तुलसीकी मिट्टी लगाकर मृत्युको प्राप्त होता है, वह सैकड़ों पापोंसे युक्त हो तो भी उसकी ओर साक्षात् यमराज भी नहीं देख सकते। जो मनुष्य तुलसीकाष्ठका चन्दन लगाता है, उसके शरीरको पाप नहीं छू सकते। जहाँ-जहाँ तुलसीवनकी छाया हो, वहीं श्राद्ध करना चाहिये, क्योंकि वहाँ पितरोंके निमित्त दिया हुआ दान अक्षय होता है ।
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नृपश्रेष्ठ! जो आँवलेकी छायामें पिण्डदान करता है, उसके नरकमें पड़े हुए पितर भी मुक्त हो जाते हैं। जो मस्तकपर, हाथमें मुखमें तथा शरीरके अन्य किसी अवयवमें आँवलेका फल धारण करता है, उसे साक्षात् श्रीहरिका स्वरूप समझना चाहिये। आँवला, तुलसी और द्वारकाकी मिट्टी (गोपीचन्दन) —ये जिसके शरीरमें स्थित हों, वह मनुष्य सदा जीवन्मुक्त कहलाता है। जो मनुष्य आँवलेके फल और तुलसीदलसे मिश्रित जलके द्वारा स्नान करता है, उसके लिये गङ्गास्नानका फल बताया गया है। जो आँवलेके पत्ते और फलोंसे देवताकी पूजा करता है, वह भाँति-भाँतिके सुवर्णमय पुष्पोंसे पूजा करनेका फल पाता है। कार्त्तिकमें जब सूर्य तुला राशिपर स्थित होते हैं, उस समय समस्त तीर्थ, मुनि देवता और यज्ञ- ये सभी आँवलेके वृक्षका आश्रय लेकर रहते हैं। जो द्वादशीको तुलसीदल और कार्तिकमें आँवलेका पत्ता तोड़ता है, वह अत्यन्त निन्दित नरकोंमें पड़ता है। जो कार्त्तिकमें आँवलेकी छायामें बैठकर भोजन करता है, उसका वर्षभरका अन्नसंसर्गजनित दोष दूर हो जाता है। जो मनुष्य कार्त्तिकमें आँवलेकी जड़में भगवान् विष्णुकी पूजा करता है, उसके द्वारा सदा सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें श्रीविष्णुका पूजन सम्पन्न हो जाता है जैसे भगवान् विष्णुकी महिमाका पूरा-पूरा वर्णन असम्भव है, उसी प्रकार आँवले और तुलसीके माहात्म्यका भी वर्णन नहीं हो सकता। जो आँवले और तुलसीकी उत्पत्ति कथाको भक्तिपूर्वक सुनता और सुनाता है, वह पापरहित हो अपने पूर्वजोंके साथ श्रेष्ठ विमानपर बैठकर स्वर्गलोकमें जाता है।