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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
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नित्ये नैमित्तिके कृष्ण कार्तिके पापनाशने। श्रीविष्णुकी आज्ञा प्राप्त करके कार्तिकका व्रत करनेके गृहाणाध्यै मया दतं राधया सहितो हरे॥ कारण यदि मुझसे कोई त्रुटि हो जाय तो उसके लिये
(९५।९) समस्त देवता मुझे क्षमा करें तथा इन्द्र आदि देवता मुझे - 'श्रीराधासहित भगवान् श्रीकृष्ण ! नित्य और पवित्र करें। बीज, रहस्य और यज्ञोंसहित वेदमन्त्र और नैमित्तिक कर्मरूप इस पापनाशक कार्तिकस्रानके व्रतके कश्यप आदि मुनि मुझे सदा ही पवित्र करें । गङ्गा आदि निमित्त मेरा दिया हुआ यह अर्घ्य स्वीकार करें।' सम्पूर्ण नदियाँ, तीर्थ, मेघ, नद और सात समुद्र-ये
इसके बाद व्रत करनेवाला पुरुष भागीरथी, सभी मुझे सर्वदा पवित्र करें। अदिति आदि पतिव्रताएँ, श्रीविष्णु, शिव और सूर्यका स्मरण करके नाभिके बराबर यक्ष, सिद्ध, नाग तथा त्रिभुवनकी ओषधि और पर्वत भी जलमें खड़ा हो विधिपूर्वक स्नान करे । गृहस्थ पुरुषको मुझे पवित्र करें।' तिल और आँवलेका चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिये। नानके पश्चात् विधिपूर्वक देवता, ऋषि, मनुष्य वनवासी संन्यासी तुलसीके मूलकी मिट्टी लगाकर स्नान (सनकादि) तथा पितरोंका तर्पण करे । कार्तिक मासमें करे। सप्तमी, अमावास्या, नवमी, द्वितीया, दशमी और पितृ-तर्पणके समय जितने तिलोंका उपयोग किया जाता त्रयोदशीको आँवलेके फल और तिलके द्वारा स्नान है, उतने ही वर्षातक पितर स्वर्गलोकमें निवास करते हैं। करना निषिद्ध है। पहले मल-नान करे अर्थात् शरीरको तदनन्तर जलसे बाहर निकलकर व्रती मनुष्य पवित्र वस्त्र खूब मल-मलकर उसकी मैल छुड़ाये। उसके बाद मन्त्र- धारण करे और प्रातःकालोचित नित्यकर्म पूरा करके नान करे । स्त्री और शूद्रोंको वेदोक्त मन्त्रोंसे स्नान नहीं श्रीहरिका पूजन करे। फिर भक्तिसे भगवान्में मन करना चाहिये। उनके लिये पौराणिक मन्त्रोंका उपयोग लगाकर तीर्थों और देवताओंका स्मरण करते हुए पुनः बताया गया है।
गन्ध, पुष्प और फलसे युक्त अर्घ्य निवेदन करे । __व्रती पुरुष अपने हाथमें पवित्रक धारण करके अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार हैनिम्नाङ्कित मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए स्नान करे- वतिनः कार्तिके मासि सातस्य विधिवप्रम । विधाभूदेवकार्यार्थं यः पुरा भक्तिभावितः । गृहाणार्य पया दत्तं राधया सहितो हरे ॥ स विष्णुः सर्वपापघ्नः पुनातु कृपयात्र माम् ॥
(९५।२३) विष्णोराज्ञामनुप्राप्य कार्तिकव्रतकारणात् । 'भगवन् ! मैं कार्तिक मासमें स्रानका व्रत लेकर क्षमन्तु देवास्ते सर्वे मां पुनन्तु सवासवाः॥ विधिपूर्वक स्रान कर चुका हूँ। मेरे दिये हुए इस अर्घ्यको वेदमन्त्राः सखीजाश्च सरहस्या मखान्विताः। आप श्रीराधिकाजीके साथ स्वीकार करें।' कश्यपाद्याश्च मुनयो मां पुनन्तु सदैव ते ॥ इसके बाद वेदविद्याके पारंगत ब्राह्मणोंका गन्ध, पुष्प गङ्गायाः सरितः सर्वास्तीर्थानि जलदा नदाः। और ताम्बूलके द्वारा भक्तिपूर्वक पूजन करे और बारंबार ससप्तसागराः सर्वे मां पुनन्तु सदैव ते॥ उनके चरणोंमें मस्तक झुकावे। ब्राह्मणके दाहिने पैरमें पतिव्रतास्त्वदित्याद्या यक्षाः सिद्धाः सपन्नगाः। सम्पूर्ण तीर्थ, मुखमें वेद और समस्त अङ्गों में देवता निवास ओषध्यः पर्वताश्चापि मां पुनन्तु त्रिलोकजाः ॥ करते हैं; अतः ब्राह्मणके पूजन करनेसे इन सबकी पूजा हो
(९५1१४-१८) जाती है। इसके पश्चात् हरिप्रिया भगवती तुलसीको पूजा 'जो पूर्वकालमें भक्तिपूर्वक चिन्तन करनेपर करे । प्रयागमें स्नान करने, काशीमें मृत्यु होने और वेदोंके देवताओके कार्यकी सिद्धिके लिये तीन स्वरूपोंमें प्रकट स्वाध्याय करनेसे जो फल प्राप्त होता है; वह सब हुए तथा जो समस्त पापोंका नाश करनेवाले हैं, वे श्रीतुलसीके पूजनसे मिल जाता है; अतः एकाग्रचित्त होकर भगवान् विष्णु यहाँ कृपापूर्वक मुझे पवित्र करें। निम्नाङ्कित मन्त्रसे तुलसीकी प्रदक्षिणा और नमस्कार करे