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उत्तरखण्ड ]
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श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा •
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विश्वेश्वर श्रीहरिके ही स्वरूप हैं। पृथ्वी आदि पाँचों भूत भी वे ही अविनाशी परमेश्वर हैं। देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत्को श्रीविष्णुमय ही जानना चाहिये; तथापि पापी मनुष्य मोहग्रस्त होनेके कारण इस बातको नहीं समझते। यह समस्त चराचर जगत् उन्हींकी मायासे व्याप्त है जो मनसे भगवान्का ही चिन्तन करता है, जिसके प्राण भगवान् में ही लगे रहते हैं, वह परमार्थं तत्त्वका ज्ञाता पुरुष ही इस रहस्यको जानता है। सम्पूर्ण भूतोंके ईश्वर भगवान् विष्णु ही तीनों लोकोंका पालन करनेवाले हैं। यह सारा संसार उन्हींमें स्थित है और उन्हींसे उत्पन्न होता है। वे ही रुद्ररूप होकर जगत्का संहार करते हैं। पालनके समय उन्हींको श्रीविष्णु कहते हैं तथा सृष्टिकालमें मैं (ब्रह्मा) और अन्यान्य लोकपाल भी उन्होंके स्वरूप है। वे सबके आधार हैं, परन्तु उनका आधार कोई नहीं है। वे सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त होते हुए भी उनसे रहित हैं। वे ही छोटे-बड़े तथा उनसे भिन्न हैं। साथ ही इन सबसे विलक्षण भी हैं; अतः देवताओ! सबका संहार करनेवाले उन श्रीहरिकी ही शरणमें जाओ वे ही हमारे जन्मदाता पिता हैं उन्हींको मधुसूदन कहा गया है।
नारदजी कहते हैं— कमलयोनि ब्रह्माजीके यों कहनेपर सब देवताओंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी सर्वव्यापी देव भगवान् जनार्दनकी शरण होकर उन्हें प्रणाम किया; अतः विप्रर्षे! तुम भी श्रीनारायणकी आराधना में लग जाओ। उनके सिवा दूसरा कौन ऐसा परम उदार देवता है, जो भक्तकी माँगी हुई वस्तु दे सके। वे पुरुषोत्तम ही पिता और माता हैं। सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी, देवताओंके भी देवता और जगदीश्वर है। तुम उन्हींकी परिचर्या करो। प्रतिदिन आलस्यरहित हो अग्निहोत्र, भिक्षा, तपस्या और स्वाध्यायके द्वारा उन
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देवदेवेश्वर गुरुको ही संतुष्ट करना चाहिये। ब्रह्मर्षे ! उन्हीं पुरुषोत्तम नारायणको तुम सब तरहसे अपनाओ ।
उन बहुत-से मन्त्रों और उन बहुत-से व्रतोंके द्वारा क्या लेना है। 'ॐ नमो नारायणाय' यह मन्त्र ही सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थकी सिद्धि करनेवाला है। द्विजश्रेष्ठ ! ब्राह्मण चीरवस्त्र पहनकर जटा रखा ले या दण्ड धारण करके मुँड़ मुँड़ा ले अथवा आभूषणोंसे विभूषित रहे; ऊपरी चिह्न धर्मका कारण नहीं होता। जो भगवान् नारायणको शरण ले चुके हैं, वे क्रूर, दुरात्मा और सदा ही पापाचारी रहे हों तो भी परमपदको प्राप्त होते हैं। जिनके पाप दूर हो गये हैं, ऐसे वैष्णव पुरुष कभी पापसे लिप्त नहीं होते। वे अहिंसा भावके द्वारा अपने मनको काबूमें किये रहते हैं और सम्पूर्ण संसारको पवित्र करते हैं। *
क्षत्रबन्धु नामके राजाने, जो सदा प्राणियोंकी हिंसामे ही लगा रहता था, भगवान् केशवकी शरण लेकर श्रीविष्णुके परमधामको प्राप्त कर लिया। महान् धैर्यशाली राजा अम्बरीषने अत्यन्त कठोर तपस्या की थी और भगवान् पुरुषोत्तमकी आराधना करके उनका साक्षात्कार किया था। राजाओंके भी राजा मित्रासन बड़े तत्त्ववेत्ता थे। उन्होंने भी भगवान् हृषीकेशकी आराधना करके ही उनके वैकुण्ठधामको प्राप्त किया था। उनके सिवा बहुत से ब्रह्मर्षि भी, जो तीक्ष्ण व्रतोंका पालन करनेवाले और शान्तचित्त थे, परमात्मा विष्णुका ध्यान करके परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हुए। पूर्वकालमें परम आह्लादसे भरे हुए प्रह्लाद भी सम्पूर्ण जीवोंके आश्रयभूत श्रीहरिका सेवन, पूजन और ध्यान करते थे; अतः भगवान्ने ही उनकी संकटोंसे रक्षा की। परम धर्मात्मा और तेजस्वी राजा भरतने भी दीर्घ कालतक इन श्रीविष्णुभगवान्की उपासना करके परम मोक्ष प्राप्त कर लिया था ।
* कि तैस्तु मन्त्रैर्बहुभिः किं तैस्तु बहुभिर्वतैः । ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रः सर्वार्थसाधकः ॥ चीरवासा जटी विप्रो दण्डी मुण्डी तथैव च भूषितो वा द्विजश्रेष्ठ न लिङ्गं धर्मकारणम् ॥ ये नृशंसा दुरात्मानः पापाचारपराः सदा । तेऽपि यान्ति परं स्थानं नारायणपरायणाः ॥
लिप्यन्ते न च पापेन वैष्णवा वीतकिल्विषाः । पुनन्ति सकलं लोकमहिंसाजितमानसाः ॥ ( ८१ । १०७ – ११० )