________________
उत्तरखण्ड ]
C---------GOO.
देखनेकी उत्कण्ठासे यहाँ आया हूँ। द्विजश्रेष्ठ! भगवान्का भक्त यदि चाण्डाल हो तो भी वह स्मरण, वार्तालाप अथवा पूजन करनेपर सबको पवित्र कर देता है* । जो अपने हाथोंमें शार्ङ्ग नामक धनुष, पाञ्चजन्य शङ्ख, सुदर्शन चक्र और कौमोदकी गदा धारण करते हैं तथा जो त्रिभुवनके नेत्र हैं, उन देवाधिदेव भगवान्का में दास हूँ।
1
• श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा •
पुण्डरीक बोले- देवर्षे ! आपका दर्शन पाकर मैं देहधारियोंमें धन्य हो गया, देवताओंके लिये भी परम पूजनीय बन गया। मेरे माता-पिता कृतार्थ हो गये और आज मैंने जन्म लेनेका फल पा लिया। नारदजी मैं आपका भक्त हूँ, मुझपर अनुग्रह कीजिये। मुझे परम गूढ़ रहस्यसे भरे हुए कर्तव्यका उपदेश दीजिये।
नारदजीने कहा- ब्रह्मन् ! इस पृथ्वीपर अनेक शास्त्र, बहुत-से कर्म और नाना प्रकारके धर्म हैं; इसीलिये संसारमें ऐसी विलक्षणता दिखायी देती है। अन्यथा सभी प्राणियोंको या तो केवल सुख ही सुख प्राप्त होता या केवल दुःख ही दुःख । [कोई सुखी और कोई दुःखी — ऐसा अन्तर देखनेमें नहीं आता ।] कुछ लोगोंके मतमें 'यह जगत् क्षणिक, विज्ञानमात्र, चेतन आत्मासे रहित तथा बाह्य पदार्थोंकी अपेक्षासे शून्य है।' दूसरे लोग ऐसा कहते हैं कि 'यह जगत् सदा नित्य अव्यक्त (मूल प्रकृति) से उत्पन्न होता है तथा उसीमें लीन होता है, अतः उपादानकी नित्यताके अनुसार यह भी नित्य ही है। कुछ लोग तत्त्वके विचारमें प्रवृत्त होकर ऐसा निश्चय करते हैं कि 'आत्मा अनेक, नित्य एवं सर्वगत है। दूसरे लोग इस निश्चयपर पहुँचे हैं कि 'जितने शरीर हैं, उतने ही आत्मा हैं।' इस मतके अनुसार हाथी और कीड़े आदिके शरीरमें तथा [ब्रह्माण्डरूपी ] महान् अण्डमें भी आत्माकी सत्ता मौजूद है। कुछ लोगोंका कहना है कि आज इस जगत्की जैसी अवस्था है, वैसी ही कालान्तरमें भी रहती है संसारका यह [ अनादि ] प्रवाह नित्य ही बना रहता है,
本
स्मृतः
७३७
भला इसका कर्ता कौन है। कुछ अन्य व्यक्तियोंकी रायमें जो-जो वस्तु प्रत्यक्ष उपलब्ध होती है, उसके सिवा और किसी वस्तुकी सत्ता नहीं है; फिर स्वर्ग आदि कहाँ हैं। कुछ लोग जगत्को ईश्वरकी सत्तासे रहित समझते हैं और कुछ लोग इसमें ईश्वरको व्यापक मानते हैं। इस प्रकार एक-दूसरेसे अत्यन्त भिन्न विचार रखनेवाले ये सभी लोग सत्यसे विमुख हो रहे हैं। इसी तरह भिन्न-भिन्न मतका मायाजाल फैलानेवाले दूसरे लोग भी बुद्धि और विद्याके अनुसार अपनी-अपनी युक्तियोंको स्थापित करते हुए भेदपूर्ण विचारोंको लेकर भाँति-भाँति की बातें करते हैं।
तपोधन! अब मैं तर्कमें स्थित होकर वास्तविक तत्त्वकी बात कहता हूँ। यह परमार्थ ज्ञान परम पुण्यमय और भयङ्कर संसारबन्धनका नाश करनेवाला है। देवता आदिसे लेकर मनुष्यपर्यन्त सब लोग उसीको प्रामाणिक मानते हैं, जो परमार्थज्ञानमूलक प्रतीत होता है। किन्तु जो अज्ञानसे मोहित हो रहे हैं, वे लोग अनागत (भविष्य), अतीत (भूत) और दूरवर्ती वस्तुको प्रमाणरूपमें नहीं स्वीकार करते। उन्हें प्रत्यक्ष वर्तमान वस्तुकी ही प्रामाणिकता मान्य है। परन्तु मुनियोंने प्रत्यक्ष और अनुमानके सिवा उस आगमको भी प्रमाण माना है, जो पूर्वपरम्परासे एक ही रूपमें चला आ रहा हो। वास्तवमें ऐसे आगमको ही परमार्थ वस्तुके साधनमें प्रमाण मानना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ आगम उस शास्त्रका नाम है, जिसके अभ्यासके बलसे राग-द्वेषरूपी मलका नाश करनेवाला उत्तम ज्ञान उत्पन्न होता हो। जो कर्म और उसके फलरूपसे प्रसिद्ध है, जिसका तत्त्व ही विज्ञान और दर्शन नाम धारण करता है, जो सर्वत्र व्यापक और जाति आदिकी कल्पनासे रहित है, जिसे आत्मसंवेदन (आत्मानुभव) रूप, नित्य, सनातन, इन्द्रियातीत, चिन्मय, अमृत, शेय, अनन्त, अजन्मा, अविकारी, व्यक्त और अव्यक्तरूपमें स्थित, निरञ्जन (निर्मल), सर्वव्यापी श्रीविष्णुके नामसे विख्यात तथा वाणीद्वारा वर्णित समस्त
संभाषितो वापि पूजितो वा द्विजोत्तम। पुनाति भगवद्भक्तभाण्डाोऽपि यदृच्छया । (८१ । ५५)