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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
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ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यासीकोई भी क्यों न हो, भगवान् केशवकी आराधनाको छोड़कर परमगतिको नहीं प्राप्त हो सकता। हजारों जन्म लेनेके पश्चात् जिसकी ऐसी बुद्धि होती है कि मैं भगवान् विष्णुके भक्तोंका दास हूँ, वह समस्त पुरुषार्थोका साधक होता है। वह पुरुष भी निस्सन्देह श्रीविष्णुधाम में जाता है। फिर जो कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले पुरुष भगवान् विष्णुमें ही मन-प्राण लगाये रहते हैं, उनकी उत्तम गतिके विषयमें क्या कहना है अतः तत्त्वका चित्तन करनेवाले पुरुषोंको चाहिये कि वे नित्य निरन्तर अनन्य चित्तसे विश्वव्यापी सनातन परमात्मा नारायणका ध्यान करते रहें। *
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भीष्मजी कहते हैं- यों कहकर परोपकारपरायण परमार्थवेत्ता देवर्षि नारद वहीं अन्तर्धान हो गये। नारायणकी शरणमें पड़े हुए धर्मात्मा पुण्डरीक भी ॐ नमो नारायणाय' इस अष्टाक्षरमन्त्रका जप करने लगे। ये अपने हृदयकमलमें अमृतस्वरूप गोविन्दकी स्थापना करके मुखसे सदा यही कहा करते थे कि 'हे विश्वात्मन् ! आप मुझपर प्रसन्न होइये।' द्वन्द्व और परिग्रहसे रहित हो तपोधन पुण्डरीकने उस निर्मल शालग्रामतीर्थमें अकेले ही चिरकालतक निवास किया। स्वप्नमें भी उन्हें केशवके सिवा और कुछ नहीं दिखायी देता था। उनकी निद्रा भी पुरुषार्थ सिद्धिकी विरोधिनी नहीं थी। तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा विशेषतः शौचाचारके पालनसे, जन्म-जन्मान्तरोंके विशुद्ध संस्कारसे तथा सर्वलोकसाक्षी देवाधिदेव श्रीविष्णुके प्रसादसे पापरहित पुण्डरीकने परम उत्तम वैष्णवी सिद्धि प्राप्त कर ली। वे सदा हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा लिये कमलके समान नेत्रोंवाले श्यामसुन्दर पीताम्बरधारी भगवान् अच्युतकी ही झाँकी किया करते थे। मृगों और प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले सिंह, व्याघ्र
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
तथा अन्यान्य जीव अपना स्वाभाविक विरोध छोड़कर उनके समीप आते और इच्छानुसार विचरा करते थे। उनको सम्पूर्ण इन्द्रियाँ प्रसन्न रहती थीं। उनके हृदयमें एक-दूसरेके हितसाधनका मनोरम भाव भर जाता था। वहाँके जलाशय और नदियोंके जल स्वच्छ हो गये थे। सभी ऋतुओंमें वहां प्रसन्नता छायी रहती थी। सबकी इन्द्रिय-वृत्तियाँ शुद्ध हो गयी थीं। हवा ऐसी चलती थी, जिसका स्पर्श सुखदायक जान पड़े। वृक्ष फूल और फलोंसे लदे रहते थे। परम बुद्धिमान् पुण्डरीकके लिये सभी पदार्थ अनुकूल हो गये थे। देवदेवेश्वर भक्तवत्सल गोविन्दके प्रसन्न होनेपर उनके लिये समस्त चराचर जगत् प्रसन्न हो गया था।
तदनन्तर एक दिन बुद्धिमान् पुण्डरीकके सामने भगवान् जगन्नाथ प्रकट हुए। हाथोंमें शङ्ख, चक्र और
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• ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः केशवाराधनं हित्वा नैव याति परां गतिम् ॥ जन्मान्तरसहस्रेषु यस्य स्यान्मतिरीदृशी दासोऽहं विष्णुभक्तानामिति सर्वार्थसाधकः ॥ स याति विष्णुसालोक्यं पुरुषो नात्र संशयः । किं पुनस्तद्रत्तप्राणाः पुरुषाः संशितव्रताः ॥ अनन्यमनसा नित्ये ध्यातव्यस्तत्वचिन्तकैः । नारायणो जगद्व्यापी परमात्मा सनातनः ।। ८१ । ११७ – १२० )