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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छमि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
तुम भी भगवान् विष्णुको भक्ति में लग जाओ। उन्होंमें मन, प्राण लगाये रहो और सदा उनके भक्तोंके हितमें तत्पर रहो। यथायोग्य अर्चना करके पुरुषोत्तमका भजन करो
और सब पापोंका नाश करनेवाली भगवान्की पवित्र कथा सुनो। राजन् ! जिस उपायसे भी भक्तपूजित विश्वात्मा भगवान् विष्णु प्रसन्न हो, वह विस्तारके साथ करो। जो मनुष्य भगवान् नारायणसे विमुख होते हैं, वे सौ अश्वमेध
और सौ वाजपेय यज्ञोका अनुष्ठान करके भी उन्हें नहीं पा सकते। जिसने एक बार भी 'हरि' इन दो अक्षरोका उच्चारण कर लिया, उसने मोक्षतक पहुँचनेके लिये मानो कमर कस ली। जिनके हृदयमें नीलकमलके समान श्यामसुन्दर भगवान् जनार्दन विराजमान हैं, उन्हींको लाभ है, उन्हींकी विजय है; उनकी पराजय कैसे हो सकती है।* जो एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन इसे सुनता या पढ़ता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके धाममें जाता है।
श्रीगङ्गाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु-प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
____पार्वती बोलीं-महामते ! श्रीगङ्गाजीके माहात्म्यका पुनः वर्णन कीजिये, जिसे सुनकर सभी मुनि संसारकी ओरसे विरक्त हो जाते हैं। . श्रीमहादेवजीने कहा-देवि ! बुद्धिमें बृहस्पति और पराक्रममें इन्द्रके समान भीष्मजी जब बाणशय्यापर शयन कर रहे थे, उस समय उन्हें देखनेके लिये अत्रि, वसिष्ठ, भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अङ्गिरा, गौतम, अगस्त्य और सुमति आदि बहुत-से ऋषि आये। धर्मपुत्र युधिष्ठिर अपने भाइयोंके साथ वहाँ मौजूद थे। उन्होंने उन परम तेजस्वी, जगत्पूज्य ऋषियोको प्रणाम करके विधिपूर्वक उनका पूजन किया। पूजा ग्रहण करके वे तपोधन महात्मा जब सुखपूर्वक आसनपर बैठ गये, तब युधिष्ठिरने भीष्मजीको प्रणाम करके इस प्रकार पूछा-पितामह ! धर्मार्थी पुरुषोंके नित्य सेवन करनेयोग्य परम पुण्यमय देश, पर्वत और आश्रम
DULHETAUDA
* अश्वमेधशतरिष्ट्रा वाजपेयशतैरपि । प्राप्नुवन्ति नग नैव नारायणपराङ्मुखाः ॥