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अर्जयस्व इषीकेश यदीच्छसि परं पदम् •
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सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको चला जाता है।* ब्रह्महत्यारा, गोघाती, शराबी और बालहत्या करनेवाला मनुष्य भी गङ्गाजीमें स्नान करके सब पापोंसे छूट जाता और तत्काल देवलोकमें चला जाता है। माधव तथा अक्षयवटका दर्शन और त्रिवेणीमें स्नान करनेवाला पुरुष वैकुण्ठमें जाता है। जैसे सूर्यके उदय होनेपर अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार गङ्गामें स्नान करनेमात्रसे मनुष्यके सारे पाप दूर हो जाते हैं। गङ्गाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक, नील पर्वत तथा कनखल तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता।
भीष्मजी कहते हैं— ऐसा जानकर श्रेष्ठ मनुष्यको बारंबार गङ्गास्नान करना चाहिये। राजन् ! वहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। जैसे देवताओंमें विष्णु यज्ञोंमें अश्वमेध और समस्त वृक्षोंमें अश्वत्थ (पीपल) श्रेष्ठ है, उसी प्रकार नदियोंमें भागीरथी गङ्गा सदा श्रेष्ठ मानी गयी हैं।
पार्वतीने पूछा- विश्वेश्वर! वैष्णवोंका लक्षण कैसा बताया गया है तथा उनकी महिमा कैसी है? प्रभो! यह बतानेकी कृपा करें।
महादेवजी बोले – देवि ! भक्त पुरुष भगवान् विष्णुकी वस्तु माना गया है, इसलिये इसे 'वैष्णव' कहते हैं। जो शौच, सत्य और क्षमासे युक्त हो, राग-द्वेषसे दूर रहता हो, वेद-विद्याके विचारका ज्ञाता हो, नित्य अग्निहोत्र और अतिथियोंका सत्कार करता हो तथा पिता-माताका भक्त हो, वह वैष्णव कहलाता है। जो कण्ठमें माला धारण करके मुखसे सदा श्रीरामनामका उच्चारण करते, भक्तिपूर्वक भगवान्की लीलाओंका गान करते, पुराणोंके स्वाध्यायमें लगे रहते और सर्वदा यज्ञ किया करते हैं, उन मनुष्योंको वैष्णव जानना चाहिये। वे सब धर्मो में सम्मानित होते हैं। जो पापाचारी मनुष्य उन वैष्णवोंकी निन्दा करते हैं, वे मरनेपर बारंबार कुत्सित योनियोंमें पड़ते हैं जो द्विज धातु अथवा मिट्टीकी बनी
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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हुई चार हाथोंवाली शोभामयी गोपाल-मूर्तिका सदा पूजन करते हैं, वे पुण्यके भागी होते हैं जो ब्राह्मण पत्थरकी बनी हुई परम सुन्दर रूपवाली श्रीकृष्णप्रतिमाकी पूजा करते हैं, वे पुण्यस्वरूप हैं। जहाँ शालग्रामशिला तथा द्वारकाकी गोमती चक्राङ्कित शिला हो और उन दोनोंका पूजन किया जाता हो, वहाँ निःसन्देह मुक्ति मौजूद रहती है। वहाँ यदि मन्त्रद्वारा मूर्तिकी स्थापना करके पूजन किया जाय तो वह पूजन कोटिगुना अधिक पुण्य देनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करनेवाला होता है। वहाँ भगवान् जनार्दनकी नवधा भक्ति करनी चाहिये। भक्त पुरुषोंको मूर्तिमें भगवान्का ध्यान और पूजन करना चाहिये। सम्भव हो तो भगवन्मूर्तिको राजोचित उपचारोंसे पूजा करे तथा उस मूर्तिमें दीनों और अनाथोंको एकमात्र शरण देनेवाले, सम्पूर्ण लोकोंके हितकारी एवं बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाले सर्वात्मा भगवान् अधोक्षजका नित्य-निरन्तर स्मरण करे। जो मूर्तिके सम्बन्धमें 'ये गोपाल हैं', 'ये साक्षात् श्रीकृष्ण हैं', 'ये श्रीरामचन्द्रजी हैं' – यों कहता है और इसी भावसे विधिपूर्वक पूजा करता है, वह निश्चय ही भगवान्का भक्त है। श्रेष्ठ वैष्णव द्विजोंको चाहिये कि वे परम भक्तिके साथ सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतलकी विष्णु प्रतिमाका निर्माण करायें, जिसके चार भुजा, दो नेत्र, हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा, शरीरपर पीत वस्त्र, गलेमें वनमाला, कानोंमें वैदूर्यमणिके कुण्डल, माथेपर मुकुट और वक्षःस्थलमें कौस्तुभमणिका दिव्य प्रकाश हो। प्रतिमा भारी और शोभासम्पन्न होनी चाहिये। फिर वेद शास्त्रोक्त मन्त्रोंके द्वारा विशेष समारोहसे उसकी स्थापना कराकर पीछे शास्त्र के अनुसार षोडशोपचारके मन्त्र आदिद्वारा विधिपूर्वक उसका पूजन करना चाहिये। जगत्के स्वामी भगवान् विष्णुके पूजित होनेपर सम्पूर्ण देवताओंकी पूजा हो जाती है। अतः इस प्रकार आदिअन्तसे रहित, शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले
* गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि । मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति । (८२ । ३४-३५) + गङ्गाद्वारे कुशावतें बिल्वके नीलपर्वते । खात्वा कनखले तीर्थे पुनर्जन्म न विद्यते । ८२ । ३८-३९)