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• अर्चयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
लिये एकमात्र विजयशील भगवान् विष्णुका प्रयत्नपूर्वक इस प्रकार जप और कीर्तन करता है, वह इस संसारका स्मरण ही सर्वोत्तम साधन देखा गया है, वह समस्त परित्याग करनेपर भगवान् विष्णुके समीप आनन्द पापोका नाश करनेवाला है।* अतः श्रीहरिके नामका भोगता है। ब्रह्मन् ! जो कलियुगमें प्रसन्नतापूर्वक कीर्तन और जप करना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह 'नृसिंह' नामका जप और कीर्तन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। भगवद्भक्त मनुष्य महान् पापसे छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य 'हरि' इस दो अक्षरोंवाले नामका सदा उच्चारण सत्ययुगमें ध्यान, त्रेतामें यज्ञ तथा द्वापरमे पूजन करके करते हैं, वे उसके उच्चारणमात्रसे मुक्त हो जाते हैं- मनुष्य जो कुछ पाता है, वही कलियुगमें केवल भगवान् इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तपस्याके रूपमें किये केशवका कीर्तन करनेसे पा लेता है। जो लोग इस जानेवाले जो सम्पूर्ण प्रायश्चित्त हैं, उन सबकी अपेक्षा बातको जानकर जगदात्मा केशवके भजनमें लीन होते श्रीकृष्णका निरन्तर स्मरण श्रेष्ठ है। जो मनुष्य प्रातः, हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त सायं, रात्रि तथा मध्याह्न आदिके समय 'नारायण' कर लेते हैं। मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, नामका स्मरण करता है, उसके समस्त पाप तत्काल नष्ट परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि-ये दस हो जाते हैं।
अवतार इस पृथ्वीपर बताये गये हैं। इनके नामोचारणउत्तम व्रतका पालन करनेवाले नारद ! मेरा कथन मात्रसे सदा ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध होता है। जो मनुष्य सत्य है, सत्य है, सत्य है। भगवान्के नामोंका उच्चारण प्रातःकाल जिस किसी तरह भी श्रीविष्णुनामका कीर्तन, करनेमात्रसे मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे मुक्त हो जाता है। जप तथा ध्यान करता है, वह निस्सन्देह मुक्त होता है, 'राम-राम-राम-राम' इस प्रकार बारम्बार जप करनेवाला निश्चय ही नरसे नारायण बन जाता है। मनुष्य यदि चाण्डाल हो तो भी वह पवित्रात्मा हो जाता सूतजी कहते हैं-यह सुनकर नारदजीको बड़ा है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। उसने नाम-कीर्तन- आश्चर्य हुआ। वे अपने पिता ब्रह्माजीसे बोले-'तात ! मात्रसे कुरुक्षेत्र, काशी, गया और द्वारका आदि सम्पूर्ण तीर्थसेवनके लिये पृथ्वीपर भ्रमण करनेकी क्या तीर्थोंका सेवन कर लिया। जो 'कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण !' आवश्यकता है। जिनके नामका ऐसा माहात्म्य है कि
* दृष्टं परेषां पापानामनुक्तानी विशोधनम् । विष्णोर्जिष्णोः प्रयत्नेन स्मरणं पापनाशनम् ॥ (७२ । १०) + ये वदन्ति नरा नित्य हरिरित्यक्षरद्वयम् । तस्योचारणमात्रेण विमुक्तास्ते न संशयः ।। प्रायश्चित्तानि सर्वाणि तपःकर्मात्पकानि वै। यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम् ॥ प्रातर्निशि तथा सार्य मध्याह्यादिषु संस्मरन् । नारायणमवाप्नोति सद्यः पापक्षर्य नरः ।। (७२ । १२-१४) + सत्यं सत्यं पुनः सत्य भाषितं मम सुत्रत । नामोचारणमात्रेण महापापात्प्रमुच्यते ॥ राम रामेति रामेति रामेति च पुनर्जपन् । स चाण्डालोऽपि पूतात्या जायते नात्र संशयः ॥ कुरुक्षेत्र तथा काशी गया वै द्वारका तथा । सर्व तीर्थ कृतं तेन नामोच्चारणमात्रतः॥ कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति इति या यो जपन् पठन् । इहलोक परित्यज्य मोदते विष्णुसंनिधौ । नृसिहेति मुदा विप्र वर्तते यो जपन् पठन्। महापापात् प्रमुच्येत कलौ भागवतो नरः ।।
घ्यायन् कृते यजन् यजैस्वेतायां द्वापरेऽर्चयन् । यदाप्रोति तदाप्रोति कलौ संकीय केशवम् ।। को ये तज्ञात्वा निमनाथ जगदात्मनि केवावे। सर्वपापपरिक्षीणा यान्ति विष्णोः परं पदम्॥
मत्स्यः कूमों वराहश्च नसिंहो वामनस्तथा । रामो रामश्च कृष्णच बुद्धः कल्की ततः स्मृतः ।। एते दशावताराच पृथिव्यां परिकीर्तिताः । एतेषी नाममात्रेण ब्राहा शुस्यते सदा ॥ प्रातः पठापन् ध्यायन् विष्णोर्नाम यथा तथा । मुच्यते नात्र संदेहः स वै नारायणो भवेत् ।। (७२ ॥ २०-२९)