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उत्तरखण्ड ]
.न्याससहित अपामार्जननामक स्तोत्र और उसकी महिमा .
बैंधना पड़ता है और न कृत्याके ही स्पर्शका भय रहता अग्रभागमें नरसिंहका, दोनों कानोंमें अर्णवेशय है। श्रीजनार्दनके प्रसन्न होनेपर समस्त दोषोंका नाश हो (समुद्रमें शयन करनेवाले भगवान्) का, दोनों नेत्रोंमें जाता है। सभी ग्रह सदाके लिये शुभ हो जाते हैं तथा पुण्डरीकाक्षका, नेत्रोंके नीचे भूधर (धरणीधर) का, दोनों वह मनुष्य देवताओंके लिये भी दुर्धर्ष बन जाता है। जो गालोंमें कल्किनाथका, कानोंके मूल भागमें वामनका, सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति समान भाव रखता है और अपने गलेकी दोनों हैंसलियोंमें शङ्खधारीका, मुखमें गोविन्दका, प्रति जैसा बर्ताव चाहता है वैसा ही दूसरोंके प्रति भी दाँतोंको पङ्क्तिमें मुकुन्दका, जिह्वामें वाणीपतिका, ठोढ़ीमें करता है, उसने मानो उपवास आदि करके भगवान् श्रीरामका, कण्ठमें वैकुण्ठका, बाहुमूलके निचले भाग मधुसूदनको संतुष्ट कर लिया। ऐसे लोगोंके पास शत्रु (काँख) में बलन (बल नामक दैत्यके मारनेवाले) का, नहीं आते, उन्हें रोग या आभिचारिक कष्ट नहीं होता कंधोंमें कंसघातीका, दोनों भुजाओंमें अज (जन्मरहित) तथा उनके द्वारा कभी पापका कार्य भी नहीं बनता। का, दोनों हाथोंमें शाङ्गपाणिका, हाथके अंगूठेमें जिसने भगवान् विष्णुकी उपासना की है, उसे भगवान्के संकर्षणका, अँगुलियोमे गोपालका, वक्षःस्थलमें चक्र आदि अमोघ अस्त्र सदा सब आपत्तियोंसे बचाते अधोक्षजका, छातीके बीचमें श्रीवत्सका, दोनों स्तनोंमें रहते है।
अनिरुद्धका, उदरमें दामोदरका, नाभिमें पद्मनाभका, . पार्वती बोलीं-भगवन् ! जो लोग भगवान् नाभिके नीचे केशवका, लिङ्गमें धराधरका, गुदामें गोविन्दकी आराधना न करनेके कारण दुःख भोग रहे हैं, गदाग्रजका, कटिमें पीताम्बरधारीका, दोनों जाँघोंमें उन दुःखी मनुष्यों के प्रति सब प्राणियोंमें सनातन मधुटि (मधुसूदन) का, पिंडलियोंमें मुरारिका, दोनों वासुदेवको स्थित देखनेवाले समदशी एवं दयालु घुटनोंमें जनार्दनका, दोनों घुट्ठियोंमें फणीशका, दोनों पुरुषोंका जो कर्तव्य हो, वह मुझे विशेषरूपसे बताइये। पैरोंकी गतिमें त्रिविक्रमका, पैरके अँगूठेमें श्रीपतिका,
महादेवजी बोले-देवेश्वरि ! बतलाता हूँ, पैरके तलवोंमें धरणीधरका, समस्त रोमकूपोंमें एकाग्रचित्त होकर सुनो। यह उपाय रोग, दोष एवं विपक्सेनका, शरीरके मांसमें मत्स्यावतारका, मेदेमें अशुभको हरनेवाला तथा शत्रुजनित आपत्तिका नाश कूर्मावतारका, वसामें वाराहका, सम्पूर्ण हडियोंमें करनेवाला है। विद्वान् पुरुष शिखामें श्रीधरका, शिखाके अच्युतका, मज्जामें द्विजप्रिय (ब्राह्मणोंके प्रेमी) का, शुक्र निचले भागमें भगवान् श्रीकरका, केशोंमें हृषीकेशका, (वीर्य) में श्वेतपतिका, सर्वाङ्गमें यज्ञपुरुषका तथा आत्मामें मस्तकमें परम पुरुष नारायणका, कानके ऊपरी भागमें परमात्माका न्यास करे। इस प्रकार न्यास करके मनुष्य श्रीविष्णुका, ललाटमें जलशायीका, दोनों भौहोंमें साक्षात् नारायण हो जाता है; वह जबतक मुँहसे कुछ श्रीविष्णुका, भौंहोंके मध्य-भागमें श्रीहरिका, नासिकाके योलता नहीं, तबतक विष्णुरूपसे ही स्थित रहता है।*
* तद् यक्ष्यामि सुरश्रेष्ठ समाहितमनाः शृणु। रोगदोषाशुभहरं विद्विडापविनाशनम् ।। शिखायां श्रीधरं न्यस्य शिसाधः श्रीकर तथा । हृषीकेशं तु केशेषु मूनि नारायण परम्॥ ऊर्ध्वोत्रे न्यसेद्विष्णु ललाटे जलशायिनम् । विष्णु वै भ्रयुगे न्यस्य भूमध्ये हरिमेव च ॥ नरसिंह नासिकाये कर्णयोरर्णवेशयम् । चक्षुषोः पुण्डरीकाक्षं तदधो भूधर न्यसेत् ॥ । कपोलपोः कल्किनार्थ वामन कर्णमूलयोः । शालिन शङ्खयोर्यस्य गोविन्द वदने तथा ॥ मुकुन्दै दन्तपतौ तु जिह्वायां बाक्पति तथा । राम हनौ तु विन्यस्य कण्ठे वैकुण्ठमेव च। बलम बाहुमूलाधासयोः कसभातिनम् । अजं भुजदये न्यस्य शाईपाणि करदये। संकर्षण कराटे गोपमङ्गलिपति । वक्षस्यधोक्षजं न्यस्य श्रीवत्सं नस्य मध्यतः ।। स्तनयोरनिरुद्धं च दामोदरमथोदरे । परानाभं तथा नाभौ नाभ्यधश्चापि केशवम् ।।