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. अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
. ऋषि बोले-भादोंके शुक्लपक्षमें जो पञ्चमी पुलस्त्यः पुलहश्चैव क्रतुः प्राचेतसस्तथा। आती है, उसका नाम ऋषिपञ्चमी है। उस दिन नदी, वसिष्ठमारिचात्रेया अर्घ्य गृहन्तु वो नमः ॥ कुएँ, पोखरे अथवा ब्राहाणके घरपर जाकर स्रान करे। फिर अपने घर आकर गोबरसे लीपकर मण्डल बनाये; 'ऋषिगण सदा मेरे व्रतको पूर्ण करनेवाले हों। वे उसमें कलशकी स्थापना करे। कलशके ऊपर एक पात्र मेरी दी हुई पूजा स्वीकार करें। सब ऋषियोंको मेरा रखकर उसे तिनीके चावलसे भर दे। उस पात्रमें नमस्कार है। पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्राचेतस, वसिष्ठ, यज्ञोपवीत, सुवर्ण तथा फलके साथ ही सुख और मारीच और आत्रेय-ये मेरा अर्घ्य ग्रहण करें। आप सौभाग्य देनेवाले सात ऋषियोंको स्थापना करे । 'ऋषि- सब ऋषियोंको मेरा प्रणाम है।' पञ्चमी' के व्रतमें स्थित हुए पुरुषोंको उन सबका इस प्रकार मनोरम धूप-दीप आदिके द्वारा ऋषियोंकी आवाहन करके पूजन करना चाहिये । तिनीके चावलका पूजा करनी चाहिये । इस व्रतके प्रभावसे पितरोंकी मुक्ति ही नैवेद्य लगाये और उसीका भोजन करे। केवल एक होती है। वत्स ! पूर्वकर्मके परिणामसे अथवा रजके समय भोजन करके व्रत करना चाहिये । उस दिन परम संसर्गदोषसे जो कष्ट होता है, उससे इस व्रतका अनुष्ठान भक्तिके साथ मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए विधिपूर्वक करनेपर निःसंदेह छुटकारा मिल जाता है। ऋषियोंका पूजन करना उचित है। पूजनके समय महादेवजी कहते है-यह सुनकर देवशर्माने ब्राह्मणको दक्षिणा और घीके साथ विधिपूर्वक भोजन- पिता-माताकी मुक्तिके लिये 'ऋषिपञ्चमी' व्रतका सामग्रीका दान देना चाहिये तथा समस्त ऋषियोंको अनुष्ठान किया। उस व्रतके प्रभावसे वे दोनों पति-पत्नी प्रसन्नता हो इस दानका उद्देश्य होना चाहिये। फिर पुत्रको आशीर्वाद देते हुए मुक्तिमार्गसे चले गये। विधिपूर्वक माहात्म्य-कथा सुनकर ऋषियोंकी प्रदक्षिणा 'ऋषिपञ्चमी' का यह पवित्र व्रत ब्राह्मणके लिये बताया करे और सबको पृथक्-पृथक् धूप-दीप तथा नैवेद्य गया, किन्तु जो नरश्रेष्ठ इसका अनुष्ठान करते हैं, वे सभी निवेदन करके अयं प्रदान करे। अर्घ्यका मन्त्र इस पुण्यके भागी होते हैं। जो श्रेष्ठ पुरुष इस परम उत्तम प्रकार है
ऋषि-व्रतका पालन करते है, वे इस लोकमें प्रचुर ऋषयः सन्तु मे नित्यं व्रतसंपूर्तिकारिणः। भोगोंका उपभोग करके अन्तमें भगवान् श्रीविष्णुके पूर्जा ग्रहन्तु महत्तामृषिभ्योऽस्तु नमो नमः ।। सनातन लोकको प्राप्त होते हैं।
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न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
पार्वती बोलीं-भगवन् ! सभी प्राणी विष और संतुष्ट कर लिया है, वे कभी रोगसे पीड़ित नहीं होते। रोग आदिके उपद्रवसे प्रस्त तथा दुष्ट ग्रहोंसे हर समय जिन्होंने कभी व्रत, पुण्य, दान, तप, तीर्थ-सेवन, देवपीड़ित रहते हैं। सुरश्रेष्ठ ! जिस उपायका अवलम्बन पूजन तथा अधिक मात्रामें अन्न-दान नहीं किया है, उन्हीं करनेसे मनुष्योंको अभिचार (मारण-उच्चाटन आदि) लोगोंको सदा रोग और दोषसे पीड़ित समझना चाहिये। तथा कृल्या आदिसे उत्पत्र होनेवाले नाना प्रकारके मनुष्य अपने मनसे आरोग्य तथा उत्तम समृद्धि आदि भयङ्कर रोगोंका शिकार न होना पड़े, उसका मुझसे जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब भगवान् वर्णन कीजिये।
विष्णुकी सेवासे निश्चय ही प्राप्त कर लेता है। महादेवजी बोले-पार्वती ! जिन लोगोंने व्रत, श्रीमधुसूदनके संतुष्ट हो जानेपर न कभी मानसिक चिन्ता उपवास और नियमोके पालनद्वारा भगवान् विष्णुको सताती है, न रोग होता है, न विष तथा प्रहोंके कष्टमें