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उत्तरखण्ड ] .
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन •
Pe..विनियोग
सुखपूर्वक जिस गतिको प्राप्त करते हैं, उसे समस्त
अङ्गन्यास धार्मिक भी नहीं पा सकते । अतः सदा भगवान् विष्णुका श्रीवासुदेवः परं ब्रह्मेति हृदयम् । मूलप्रकृतिरिति स्मरण करना चाहिये, इन्हें कभी भी भूलना नहीं चाहिये। शिरः। महावराह इति शिखा। सूर्यवंशध्वज इति क्योंकि सभी विधि और निषेध इन्हीके किङ्कर हैं- कवचम्। ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशव इति इन्हींकी आज्ञाका पालन करते हैं।* प्रिये ! अब मैं नेत्रम्। पार्थार्थखण्डिताशेष इत्यस्खम्। नमो तुमसे भगवान् विष्णुके मुख्य-मुख्य हजार नामोंका वर्णन नारायणायेति न्यासं सर्वत्र कारयेत् ॥ ११७ ॥ करूँगा, जो तीनों लोकोंको मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। 'श्रीवासुदेवः परं ब्रह्म' (श्रीवासुदेव परब्रह्म
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हैं)-यह कहकर दाहिने हाथकी अंगुलियोंसे हृदयका अस्य श्रीविष्णोर्नामसहस्रस्तोत्रस्य श्रीमहादेव स्पर्श करे। 'मूलप्रकृतिः' (मूल प्रकृति) का उच्चारण ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,परमात्मा देवता, ह्रीं बीजम्, श्रीं करके सिरका सर्श करे। 'महावराहः' (महान् शक्तिः, क्लीं कीलकम, चतुर्वर्गधर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे वराहरूपधारी भगवान् विष्णु)-यह कहकर शिखाका विनियोगः ॥ ११४ ॥
स्पर्श करे। 'सूर्यवंशध्वजः' (सूर्यवंशके ध्वजारूप इस श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रके महादेवजी ऋषि, भगवान् श्रीराम) यों कहकर दोनों हाथोंसे दोनों अनुष्टुप् छन्द, परमात्मा देवता, ह्रीं बीज, श्री शक्ति और भुजाओंके मूलभागका स्पर्श करे। 'ब्रह्मादिकी कोलक है। चारों पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम तथा काम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशवः' (अवतार धारण मोक्षकी प्राप्तिके निमित्त जप करनेके लिये इस स्तोत्रका करनेपर जिनका शिशुरूप अपने अनुपम सौन्दर्यसे विनियोग (प्रयोग) किया जाता है ।। ११४ ॥ संसारको आश्चर्य में डाल देता है तथा ब्रह्मा आदि देवता
ॐ वासुदेवाय विद्महे, महाहंसाय धीमहि, तन्नो भी उस रूपमें जिनकी झाँकी करनेकी अभिलाषा रखते विष्णुः प्रचोदयात् ॥११५॥
हैं, वे भगवान् विष्णु धन्य हैं) यह कहकर नेत्रोंका स्पर्श ___हम श्रीवासुदेवका तत्त्व समझनेके लिये ज्ञान प्राप्त करे। 'पार्थार्थखण्डिताशेषः' (अर्जुनके लिये करते हैं, महाहंसस्वरूप नारायणके लिये ध्यान करते हैं, महाभारतके समस्त वीरोंका संहार करानेवाले श्रीकृष्ण) श्रीविष्णु हमें प्रेरित करे-हमारी मन, बुद्धिको प्रेरणा यों कहकर ताली बजाये। अन्तमें 'नमो नारायणाय' देकर इस कार्यमें लगायें ।। ११५॥
(श्रीनारायणको नमस्कार है)-ऐसा बोलकर सर्वाङ्गका अङ्गन्यासकरन्यासविधिपूर्व यदा पठेत्। स्पर्श करे ।। ११७ ॥ तत्फलं कोटिगुणितं भवत्येव न संशयः ॥ ११६॥ ॐ नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने,
यदि पहले अङ्गन्यास और करन्यासकी विधि पूर्ण विशुद्धसत्त्वाय महाहंसाय धीमहि, तन्नो देवः करके सहस्रनामस्तोत्रका पाठ किया जाय तो निस्सन्देह प्रचोदयात् ॥ ११८॥ उसका फल कोटिगुना होता है ।। ११६ ॥
ॐकाररूप सर्वान्तर्यामी महात्मा नारायणको
* स्मर्तव्यः सतत विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् । सर्वे विधिनिषेधाः स्युरेतस्यैव हि किङ्कराः ॥ (७२ । १००)
यहाँ अङ्गन्यासकी विधिका उल्लेख किया गया है। इन्हीं मोसे करन्यास भी किया जा सकता है, उसकी विधि इस प्रकार है। 'श्रीवासुदेवः परं ब्राह्म' यह कहकर दोनों हाथोंके अँगूठोको परस्पर मिलाये इसी तरह 'मूलप्रकृतिः' कहकर दोनों तर्जनियोको. 'महावराहः का उधारण करके दोनों बीचकी अँगुलियोको, 'सूर्यवंशध्वजः' कहकर दोनों अनामिकाओको, 'ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशवः'का उचारण करके दोनों कनिष्ठिका अगुलियोंको. 'पार्थार्थसण्डिताशेषः' कहकर दोनों हथेलियोंको तथा 'नमो नारायणाय का उधारण करके हथेलियोंके पृष्ठभागोको परस्पर स्पर्श कराये।