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उत्तरखण्ड ]
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कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य -
मुचुकुन्दका, प्रिय पत्नी चन्द्रभागाका तथा समस्त नगरका जब मेरी अवस्था आठ वर्षसे अधिक हो गयी, तभीसे
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लेकर आजतक मैंने जो एकादशीके व्रत किये हैं और उनसे मेरे भीतर जो पुण्य सञ्चित हुआ है, उसके प्रभावसे यह नगर कल्पके अन्ततक स्थिर रहेगा तथा सब प्रकारके मनोवाञ्छित वैभवसे समृद्धिशाली होगा।'
नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार 'रमा' व्रतके प्रभावसे चन्द्रभागा दिव्य भोग, दिव्य रूप और दिव्य आभरणोंसे विभूषित हो अपने पतिके साथ मन्दराचलके शिखरपर विहार करती है। राजन् ! मैंने तुम्हारे समक्ष 'रमा' नामक एकादशीका वर्णन किया है। यह चिन्तामणि तथा कामधेनुके समान सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली है। मैंने दोनों पक्षोंके एकादशीव्रतोंका पापनाशक माहात्य बताया है। जैसी कृष्णपक्षको एकादशी है, वैसी ही शुक्लपक्षकी भी है; उनमें भेद नहीं करना चाहिये। जैसे सफेद रंगकी गाय हो या काले रंगकी, दोनोंका दूध एक-सा ही होता है, इसी प्रकार दोनों पक्षोंकी एकादशियाँ समान फल देनेवाली हैं। जो मनुष्य एकादशी व्रतोंका माहात्म्य सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
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युधिष्ठिरने पूछा - श्रीकृष्ण ! मैंने आपके मुखसे 'रमा'का यथार्थ माहात्म्य सुना। मानद ! अब कार्तिक शुक्रपक्षमें जो एकादशी होती है; उसकी महिमा बताइये ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! कार्तिकके शुक्रपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका जैसा वर्णन लोकस्रष्टा ब्रह्माजीने नारदजीसे किया था वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ।
+ नारदजीने कहा- पिताजी! जिसमें धर्म-कर्ममें प्रवृत्ति करानेवाले भगवान् गोविन्द जागते हैं, उस 'प्रबोधिनी एकादशीका माहात्म्य बतलाइये।
कुशल- समाचार पूछा।
सोमशर्माने कहा- राजन् ! वहाँ सबकी कुशल है। यहाँ तो अद्भुत आश्चर्यकी बात है! ऐसा सुन्दर और विचित्र नगर तो कहीं किसीने भी नहीं देखा होगा। बताओ तो सही, तुम्हें इस नगरकी प्राप्ति कैसे हुई ?
शोभन बोले- द्विजेन्द्र ! कार्तिककें कृष्णपक्षमें जो 'रमा' नामकी एकादशी होती है, उसीका व्रत करनेसे मुझे ऐसे नगरकी प्राप्ति हुई है। ब्रह्मन् ! मैंने श्रद्धाहीन होकर इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया था इसलिये मैं ऐसा मानता हूँ कि यह नगर सदा स्थिर रहनेवाला नहीं है। आप मुचुकुन्दकी सुन्दरी कन्या चन्द्रभागासे यह सारा वृत्तान्त कहियेगा।
शोभनकी बात सुनकर सोमशर्मा ब्राह्मण मुचुकुन्द पुरमें गये और वहाँ चन्द्रभागाके सामने उन्होंने सारा 'वृत्तान्त कह सुनाया ।
सोमशर्मा बोले- शुभे। मैंने तुम्हारे पतिको प्रत्यक्ष देखा है तथा इन्द्रपुरीके समान उनके दुर्धर्ष नगरका भी अवलोकन किया है। वे उसे अस्थिर बतलाते थे। तुम उसको स्थिर बनाओ।
चन्द्रभागाने कहा— ब्रह्मयें! मेरे मनमें पतिके दर्शनकी लालसा लगी हुई है। आप मुझे वहाँ ले चलिये। मैं अपने व्रतके पुण्यसे उस नगरको स्थिर बनाऊँगी।
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भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- राजन्! चन्द्रभागाकी बात सुनकर सोमशर्मा उसे साथ ले मन्दराचल पर्वतके निकट वामदेव मुनिके आश्रमपर गये। वहाँ ऋषिके मन्त्रकी शक्ति तथा एकादशीसेवनके प्रभावसे चन्द्रभागाका शरीर दिव्य हो गया तथा उसने दिव्य गति प्राप्त कर ली। इसके बाद वह पतिके समीप गयी। उस समय उसके नेत्र हर्षोल्लाससे खिल रहे थे। अपनी प्रिय पत्नीको आयी देख शोभनको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उसे बुलाकर अपने वामभागमें सिंहासनपर बिठाया; तदनन्तर चन्द्रभागाने हर्षमें भरकर अपने प्रियतमसे यह प्रिय वचन कहा— 'नाथ! मैं हितकी बात कहती हूँ. सुनिये। पिताके घरमें रहते समय
ब्रह्माजी बोले – मुनिश्रेष्ठ ! 'प्रबोधिनी' का माहात्म्य पापका नाश, पुण्यकी वृद्धि तथा उत्तम बुद्धिवाले पुरुषोंको मोक्ष प्रदान करनेवाला है। समुद्रसे लेकर सरोवरतक जितने भी तीर्थ हैं, वे सभी अपने माहात्म्यकी तभीतक गर्जना करते हैं, जबतक कि कार्तिक मासमें भगवान् विष्णुकी 'प्रबोधिनी' तिथि नहीं