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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
अनन्त गुना फल होता है।
तुलसीके समीप लाख गुना और भगवान् विष्णुके निकट 'कमला' एकादशीके व्रतके प्रभावसे मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ और देवाधिदेव श्रीहरिकी आज्ञा पाकर वैकुण्ठधामसे आयी हूँ। मैं तुम्हें वर दूँगी।'
ब्राह्मण बोला- माता लक्ष्मी ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो वह व्रत बताइये, जिसकी कथा वार्तामें साधु-ब्राह्मण सदा संलग्न रहते हैं।
अवन्तीपुरीमें शिवशर्मा नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे, उनके पाँच पुत्र थे। इनमें जो सबसे छोटा था, वह पापाचारी हो गया; इसलिये पिता तथा स्वजनोंने उसे त्याग दिया। अपने बुरे कर्मो के कारण निर्वासित होकर वह बहुत दूर वनमें चला गया। दैवयोगसे एक दिन वह तीर्थराज प्रयागमें जा पहुँचा। भूखसे दुर्बल शरीर और दीन मुख लिये उसने त्रिवेणीमें स्नान किया। फिर क्षुधासे पीड़ित होकर वह वहाँ मुनियोंके आश्रम खोजने लगा। इतनेमें उसे वहाँ हरिमित्र मुनिका उत्तम आश्रम दिखायी दिया। पुरुषोत्तम मासमें वहाँ बहुत से मनुष्य एकत्रित हुए थे। आश्रमपर पापनाशक कथा कहनेवाले ब्राह्मणोंके मुखसे उसने श्रद्धापूर्वक 'कमला' एकादशीकी महिमा सुनी, जो परम पुण्यमयी तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। जयशर्माने विधिपूर्वक 'कमला' एकादशीकी कथा सुनकर उन सबके साथ मुनिके आश्रमपर ही व्रत किया। जब आधी रात हुई तो भगवती लक्ष्मी उसके पास आकर बोलीं- 'ब्रह्मन् ! इस समय
लक्ष्मीने कहा- ब्राह्मण! एकादशी व्रतका माहात्म्य श्रोताओंके सुनने योग्य सर्वोत्तम विषय है। यह पवित्र वस्तुओंमें सबसे उत्तम है। इससे दुःस्वप्रका नाश तथा पुण्यकी प्राप्ति होती हैं, अतः इसका यलपूर्वक श्रवण करना चाहिये। उत्तम पुरुष श्रद्धासे युक्त हो एक या आधे श्लोकका पाठ करनेसे भी करोड़ों महापातकों से तत्काल मुक्त हो जाता है। जैसे मासोंमें पुरुषोत्तम मास, पक्षियोंमें गरुड़ तथा नदियोंमें गङ्गा श्रेष्ठ हैं; उसी प्रकार तिथियोंमें द्वादशी तिथि उत्तम है। समस्त देवता आज भी [ एकादशी व्रतके ही लोभसे] भारतवर्षमें जन्म लेनेकी इच्छा रखते हैं। देवगण सदा ही रोग-शोकसे रहित भगवान् नारायणका पूजन करते हैं। जो लोग मेरे प्रभु भगवान् नारायणके नामका सदा भक्तिपूर्वक जप करते हैं, उनकी ब्रह्मा आदि देवता सर्वदा पूजा करते हैं। जो लोग श्रीहरिके नाम-जपमें संलग्न है, उनकी लीलाकथाओंके कीर्तनमें तत्पर हैं तथा निरन्तर श्रीहरिकी पूजामें ही प्रवृत्त रहते हैं; वे मनुष्य कलियुगमें कृतार्थ हैं। यदि दिनमें एकादशी और द्वादशी हो तथा रात्रि बीततेबीतते त्रयोदशी आ जाय तो उस त्रयोदशीके पारणमें सौ यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। व्रत करनेवाला पुरुष चक्रसुदर्शनधारी देवाधिदेव श्रीविष्णुके समक्ष निम्राङ्कित मन्त्रका उच्चारण करके भक्तिभावसे संतुष्टचित्त होकर उपवास करे। वह मन्त्र इस प्रकार है
एकादश्यां निराहारः स्थित्वाहमपरेऽहनि ॥ भोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत ॥ (६४ | ३४)
'कमलनयन ! भगवान् अच्युत ! मै एकादशीको निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूँगा। आप मुझे शरण दें।'