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• अर्चयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
चाहिये कि वे पूरा प्रयत्न करके उक्त धर्मोका पालन करे। अशुद्ध हो जाता है। यदि मानव उस अपवित्र अन्नको यह चातुर्मास्य व्रत मनुष्योंद्वारा सदा पालन करनेयोग्य खा ले तो वह दोषका भागी होता है। है। ब्रह्मन् ! और अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता? मौन होकर भोजन करनेवाला पुरुष निस्सन्देह इस पृथ्वीपर जो लोग भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे धन्य स्वर्गलोकमें जाता है। जो बात करते हुए भोजन करता हैं ! उनका कुल अत्यन्त धन्य है ! तथा उनकी जाति भी है, उसके वार्तालापसे अन्न अशुद्ध हो जाता है, वह परम धन्य मानी गयी है।
केवल पापका भोजन करता है; अतः मौन-धारण जो भगवान् जनार्दनके शयन करनेपर मधु भक्षण अवश्य करना चाहिये। नारद ! मौनावलम्बनपूर्वक जो करता है, उसे महान् पाप लगता है; अब उसके भोजन किया जाता है, उसे उपवासके समान जानना त्यागनेका जो पुण्य है, उसका भी श्रवण करो, नाना चाहिये। जो नरश्रेष्ठ प्रतिदिन प्राणवायुको पाँच आहुतियाँ प्रकारके जितने भी यज्ञ हैं, उन सबके अनुष्ठानका फल देकर मौन भोजन करता है, उसके पाँच पातक निश्चय ही उसे प्राप्त होता है। चौमासेमें अनार, नीबू और नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मन् ! पितृकर्म (श्राद्ध) में सिला नारियलका भी त्याग करे। ऐसा करनेवाला पुरुष हुआ वस्त्र नहीं पहनना चाहिये। अपवित्र अङ्गपर पड़ा विमानपर विचरनेवाला देवता होकर अन्तमें भगवान् हुआ वख भी अशुद्ध हो जाता है। मल-मूत्रका त्याग विष्णुके वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। जो मनुष्य धान, अथवा मैथुन करते समय कमर अथवा पीठपर जो वस्त्र जौ और गेहूँका त्याग करता है, वह विधिपूर्वक रहता है, उस वस्त्रको अवश्य ही बदल दे। श्राद्धमें तो दक्षिणासहित अश्वमेधादि यज्ञोंके अनुष्ठानका फल पाता ऐसे वस्त्रको त्याग देना ही उचित है। मुने! विद्वान है। साथ ही वह धन-धान्यसे सम्पन्न और अनेक पुत्रोंसे पुरुषोंको सदा चक्रधारी भगवान् विष्णुको पूजा करनी युक्त होता है। तुलसीदल, तिल और कुशोंसे तर्पण चाहिये। विशेषतः पवित्र एवं जितेन्द्रिय पुरुषोंका यह करनेका फल कोटिगुना बताया गया है। विशेषतः आवश्यक कर्तव्य है। भगवान् हषीकेशके शयन चातुर्मास्यमें उसका फल बहुत अधिक होता है। जो करनेपर तृणशाक (पत्तियोंका साग), कुसुम्भिका भगवान् विष्णुके सामने वेदके एक या आधे पदका (लौकी) तथा सिले हुए कपड़े यत्नपूर्वक त्याग देने अथवा एक या आध ऋचाका भी गान करते हैं, वे चाहिये। जो चौमासेमें भगवानके शयन करनेपर इन निश्चय ही भगवान्के भक्त हैं। इसमें तनिक भी सन्देह वस्तुओंको त्याग देता है, वह कल्पपर्यन्त कभी नरकमें नहीं है। नारद ! जो चौमासमें दही, दूध, पत्र, गुड़ और नहीं पड़ता। विप्रवर ! जिसने असत्य-भाषण, क्रोध, साग छोड़ देता है, वह निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। शहद तथा पर्वके अवसरपर मैथुनका त्याग कर दिया है, मुने ! जो मनुष्य प्रतिदिन आँवला मिले हुए जलसे ही वह अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। विद्वन् ! किसी नान करते हैं, उन्हें नित्य महान् पुण्य प्राप्त होता है। पदार्थको उपभोगमें लानेके पहले उसमेंसे कुछ मनीषी पुरुष आँवलेके फलको पापहारी बतलाते हैं। ब्राह्मणको दान करना चाहिये; जो ब्राह्मणको दिया जाता ब्रह्माजीने तीनों लोकोंको तारनेके लिये पूर्वकालमें है, वह धन अक्षय होता है। ब्रह्मन् ! मनुष्य दान में दिये
आँवलेकी सृष्टि की थी। जो मनुष्य चौमासेभर अपने हुए धनका कोटि-कोटि गुना फल पाता है। जो पुरुष हाथसे भोजन बनाकर खाता है, वह दस हजार वर्षातक सदा ब्राह्मणकी बतायी हुई उत्तम विधि तथा शास्त्रोक्त इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो मौन होकर भोजन नियमोंका पालन करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है, करता है, वह कभी दुःखमें नहीं पड़ता। मौन होकर अतः पूर्ण प्रयत्न करके यथाशक्ति नियम और दानके भोजन करनेवाले राक्षस भी स्वर्गलोकमें चले गये हैं। द्वारा देवाधिदेव जनार्दनको संतुष्ट करना चाहिये। यदि पके हुए अन्नमें कीड़े-मकोड़े पड़ जाय तो वह नारदजीने पूछा-विश्वेश्वर ! जिसके आचरणसे