________________
उत्तरखण्ड ]
. चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन .
६८१
..............
करनेसे सौगुने फलकी प्राप्ति होती है। चौमासेका व्रत वृक्ष-पलाश पापोका नाशक और सम्पूर्ण कामनाओंका करनेवाला पुरुष पोखरेमें स्नान करनेमात्रसे गङ्गा-स्रानका दाता है। नारद ! इसका विचला पत्ता शूद्र जातिके लिये फल पाता है। जो सदा पृथ्वीपर भोजन करता है, वह निषिद्ध है। यदि शूद्र पलाशके बिचले पत्रमें भोजन पृथ्वीका स्वामी होता है। श्रीविष्णुकी चरण-वन्दना करता है तो उसे चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त नरकमें रहना करनेसे गोदानका फल मिलता है। उनके चरण- पड़ता है। अतः वह बिचले पत्रको त्याग दे और शेष कमलोंका स्पर्श करनेसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। पत्रों में भोजन किया करे । ब्रह्मन् ! जो शूद्र बिचले पत्रमें प्रतिदिन एक समय भोजन करनेवाला पुरुष अग्निष्टोम भोजन करता है, वह ब्राह्मणको कपिला गौ दान करनेसे यज्ञका फलभागी होता है। जो श्रीविष्णुकी एक सौ आठ ही शुद्ध होता है, अन्यथा नहीं। बार परिक्रमा करता है, वह दिव्य विमानपर बैठकर यात्रा यदि शूद्र अपने घरमें कपिला गौका दोहन करे तो करता है। विद्वन् । पचगव्य खानेवाले मनुष्यको वह दस हजार वर्षांतक विष्ठाका कीड़ा होता है। कीड़ेकी चान्द्रायणका फल मिलता है। जो प्रतिदिन भगवान् योनिसे छूटनेपर पशुयोनिमें जन्म लेता है। जो शूद्र विष्णुके आगे शास्त्रविनोदके द्वारा लोगोंको ज्ञान देता है, कपिल जातिके बैलको गाड़ीमें जोतकर हाँकता है, वह वह व्यासस्वरूप विद्वान् श्रीविष्णुधामको प्राप्त होता है। उस बैलके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षातक तुलसीदलसे भगवानकी पूजा करके मानव वैकुण्ठ- कुम्भीपाकमें पकाया जाता है; यदि शूद्र पानी लानेके धाममें जाता है। गर्म जलका त्याग कर देनेसे पुष्कर लिये किसी ब्राह्मणको घरमें भेजे तो वह जल मदिराके तीर्थ में स्नान करनेका फल होता है। जो पत्तोंमें भोजन तुल्य होता है और उसे पीनेवाला नरकमें जाता है। जो करता है, उसे कुरुक्षेत्रका फल मिलता है। जो प्रतिदिन शूद्र बुलानेपर ब्राह्मणोंके घर भोजन करता है, उसके पत्थरकी शिलापर भोजन करता है, उसे प्रयाग-तीर्थका लिये वह अन्न अमृतके समान होता है और उसे खाकर पुण्य प्राप्त होता है।
वह मोक्ष प्राप्त करता है। जो शूद्र लोभवश दूसरेका, _चौमासेमें काँसीके बरतनोंका त्याग करके अन्यान्य विशेषतः ब्राह्मणोंका सोना या चाँदी ले लेता है, वह धातुओंके पात्रोंका उपयोग करे। अन्य किसी प्रकारका नरकमें जाता है। शूद्रको चाहिये कि वह सदा ब्राह्मणोंको पात्र न मिलनेपर मिट्टीका ही पात्र उत्तम है। अथवा स्वयं दान दे और उनमें विशेषरूपसे भक्तिभाव करे । विशेषतः ही पलाशके पत्ते लाकर उनकी पत्तल बनावे और उनसे चौमासेमें जैसे भगवान् विष्णु आराधनीय हैं, वैसे ही भोजन-पात्रका काम ले। जो पूरे एक वर्षतक प्रतिदिन ब्राह्मण भी। नारद ! ब्राह्मणों की विधिपूर्वक पूजा करनी अग्निहोत्र करता है और जो वनमें रहकर केवल पत्तोंमें चाहिये । भाद्रपद मास आनेपर उनकी महापूजा होती है। भोजन करता है, उन दोनोंको समान फल मिलता है। चौमासेमें भूमिपर शयन करनेवाला मनुष्य विमान प्राप्त पलाशके पत्तोंमें किया हुआ भोजन चान्द्रायणके समान करता है। दस हजार वर्षांतक उसे रोग नहीं सताते । वह माना गया है। पलाशके पत्तोंमें एक-एक बारका भोजन मनुष्य बहुत-से पुत्र और धनसे युक्त होता है। उसे कभी त्रिरात्र-व्रतके समान पुण्यदायक और बड़े-बड़े पातकोका कोढ़की बीमारी नहीं होती। बिना माँगे स्वतः प्राप्त हुए नाश करनेवाला बताया गया है । एकादशीके व्रतका जो अन्नका भोजन करनेसे बावली और कुआँ बनवानेका पुण्य है, वही पलाशके पत्तेमें भोजन करनेका भी फल होता है। जो प्राणियोंकी हिंसासे मुँह मोड़कर बतलाया गया है। उससे मनुष्य सब प्रकारके दानों तथा द्रोहका त्याग कर देता है, वह भी पूर्वोक्त पुण्यका भागी समस्त तीर्थोका फल पा लेता है । कमलके पत्तोंमें भोजन होता है। वेदोंमें बताया गया है कि 'अहिंसा श्रेष्ठ धर्म करनेसे कभी नरक नहीं देखना पड़ता। ब्राह्मण उसमें है।' दान, दया और दम-ये भी उत्तम धर्म हैं, यह भोजन करनेसे वैकुण्ठमें जाता है। ब्रह्माजीका महान् बात मैंने सर्वत्र ही सुनी है; अतः बड़े लोगोंको भी