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. अर्थयस्व हषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
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माने गये हैं, वे सब यहाँ साधु पुरुषोंके सङ्गसे प्राप्त हो वैशाख-सानके उत्तम व्रतका पालन कराऊँगा। जाते हैं। जो पापोंका अपहरण करनेवाली सत्सङ्गकी तदनन्तर पुरोहित कश्यपने राजा महीरथसे वैशाख गङ्गामें स्रान कर चुका है, उसे दान, तीर्थसेवन, तपस्या मासमें स्नान, दान और पूजन कराया। शास्त्रमें वैशाखतथा यज्ञ करनेकी क्या आवश्यकता है।* प्रभो! नानकी जैसी विधि उन्होंने देखी थी, उसका पूरा-पूरा आजके पहले मेरे मनमें जो-जो भाव उठते थे, वे सब पालन कराया। राजा महीरथने भी गुरुकी प्रेरणासे उस केवल काम-सुखके प्रति लोभ उत्पन्न करनेवाले थे; समय विधिपूर्वक सब नियमोंका पालन किया तथा परन्तु आज आपके दर्शनसे तथा वचन सुननेसे उनमें माधव मासका जो-जो विधान उन्होंने बताया, वह सब विपरीत भाव आ गया। मूर्ख मनुष्य एक जन्मके सुखके आदरपूर्वक सुना। उन नृपश्रेष्ठने प्रातःकाल स्रान करके लिये हजारों जन्मोंका सुख नष्ट करता है और विद्वान् भक्ति-भावके साथ पाद्य और अर्थ्य आदि देकर पुरुष एक जन्मसे हजारों जन्म बना लेते हैं। हाय ! श्रीहरिका पूजन किया तथा नैवेद्य भोग लगाया। हाय ! कितने खेदकी बात है कि मुझ मूर्खने अपने यमराज कहते है-ब्रह्मन् ! तत्पश्चात् राजाके मनको सदा कामजनित रसके आस्वादन-सुखमें ही ऊपर कालकी दृष्टि पड़ी। अधिक मात्रामें रतिका सेवन फंसाये रखनेके कारण कभी कुछ भी आत्म-कल्याणका करनेसे उन्हें क्षयका रोग हो गया था, जिससे उनका कार्य नहीं किया। अहो ! मेरे मनका कैसा मोह है, शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया; अन्ततोगत्वा उनको मृत्यु जिससे मैंने खियोंके फेरमें पड़कर अपने आत्माको घोर विपत्तिमें डाल दिया, जिसका भविष्य अत्यन्त दुःखमय है तथा जिससे पार पाना बहुत कठिन है। भगवन् ! आपने स्वतः संतुष्ट होकर अपनी वाणीसे आज मुझे मेरी स्थितिका बोध करा दिया। अब उपदेश देकर मेरा उद्धार कीजिये। पूर्वजन्ममें मैंने कोई पुण्य किया था, जिससे आपने मुझे बोध कराया है। विशेषतः आपके चरणोंकी धूलिसे आज मैं पवित्र हो गया। वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! अब आप मुझे वैशाख मासकी विधि बताइये।
कश्यपजी बोले-राजन् ! बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह बिना पूछे अथवा अन्यायपूर्वक पूछनेपर किसीको उपदेश न दे। लोकमें जानते हुए भी जडवत्
अनजानकी भाँति आचरण करे । परन्तु विद्वानो, शिष्यो, पुत्रों तथा श्रद्धालु पुरुषोंको उनके हितकी बात कृपापूर्वक बिना पूछे भी बतानी चाहिये । राजन् ! इस समय तुम्हारा मन धर्ममें स्थित हुआ है, अतः तुम्हे
* हर्षप्रटो नृणां पापहानिकृजीवनौषधम्। जगमृत्युहरो विप्र सद्धिः सह समागमः ।। यानि यानि दुरापानि वाञ्छितानि महीतले । प्राप्यन्ते तानि तान्येव साधुनापोह संगमात् ॥
सः स्नातः पापहरया साधुसंगमगङ्गया। किं तस्य दानः किं तीर्थः किं तपोभिः किमध्वः॥ (९६ । ३-५) + नापृष्टः कस्यचिद् बयान चान्यायेन पृच्छतः । जाननपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत् ॥ (९६ । १७) # विदुषामथ शिष्याणां पुत्राणां च कृपायता । अपृष्टमपि वक्तव्यं श्रेयः श्रतायतां हितम् ।। (९६ । १८)