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उत्तरखण्ड ]
• चैत्र मासको 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य .
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पिताका यह कथन सुनकर मेधावीने उस व्रतका नागराज पुण्डरीक राजसभामें बैठकर मनोरञ्जन कर रहा अनुष्ठान किया। इससे उनका पाप नष्ट हो गया और वे था। उस समय ललितका गान हो रहा था। किन्तु उसके पुनः तपस्यासे परिपूर्ण हो गये। इसी प्रकार मञ्जुघोषाने साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी। गाते-गाते उसे भी इस उत्तम व्रतका पालन किया। पापमोचनी का व्रत ललिताका स्मरण हो आया। अतः उसके पैरोंकी गति करनेके कारण वह पिशाच-योनिसे मुक्त हुई और दिव्य रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लगी। नागोंमें श्रेष्ठ रूपधारिणी श्रेष्ठ अप्सरा होकर स्वर्गलोकमें चली गयो। कोंटकको ललितके मनका सन्ताप ज्ञात हो गया; अतः राजन् ! जो श्रेष्ठ मनुष्य पापमोचनी एकादशीका व्रत उसने राजा पुण्डरीकको उसके पैरोंकी गति रुकने एवं करते हैं, उनका सारा पाप नष्ट हो जाता है। इसको पढ़ने गानमें त्रुटि होनेकी बात बता दी। कर्कोटककी बात
और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। ब्रह्म- सुनकर नागराज पुण्डरीककी आँखें क्रोधसे लाल हो हल्या, सुवर्णकी चोरी, सुरापान और गुरुपलीगमन गयीं। उसने गाते हुए कामातुर ललितको शाप दियाकरनेवाले महापातकी भी इस व्रतके करनेसे पापमुक्त हो 'दुर्बुद्धे! तू मेरे सामने गान करते समय भी पलीके जाते हैं। यह व्रत बहुत पुण्यमय है।
वशीभूत हो गया, इसलिये राक्षस हो जा।' युधिष्ठिरने पूछा-वासुदेव ! आपको नमस्कार महाराज पुण्डरीकके इतना कहते ही वह गन्धर्व है। अब मेरे सामने यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्षमें किस राक्षस हो गया। भयङ्कर मुख, विकराल आँखें और नामकी एकादशी होती है?
देखनेमात्रसे भय उपजानेवाला रूप। ऐसा राक्षस होकर भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! एकाग्रचित्त वह कर्मका फल भोगने लगा। ललिता अपने पतिको होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वसिष्ठजीने दिलीपके विकराल आकृति देख मन-ही-मन बहुत चिन्तित हुई। पूछनेपर कहा था।
- भारी दुःखसे कष्ट पाने लगी। सोचने लगी, 'क्या करूँ? । दिलीपने पूछा-भगवन् ! मैं एक बात सुनना कहाँ जाऊँ ? मेरे पति पापसे कष्ट पा रहे हैं। वह रोती चाहता हूँ। चैत्रमासके शुरूपक्षमें किस नामकी एकादशी हुई घने जंगलोंमें पतिके पीछे-पीछे घूमने लगी। वनमें होती है?
- उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया, जहाँ एक शान्त वसिष्ठजी बोले-राजन् ! चैत्र शुक्लपक्षमे मुनि बैठे हुए थे। उनका किसी भी प्राणीके साथ 'कामदा' नामको एकादशी होती है। वह परम पुण्यमयी वैर-विरोध नहीं था। ललिता शीघ्रताके साथ वहाँ गयो है। पापरूपी ईधनके लिये तो वह दावानल ही है। और मुनिको प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई। मुनि प्राचीन कालकी बात है, नागपुर नामका एक सुन्दर नगर बड़े दयालु थे। उस दुःखिनीको देखकर वे इस प्रकार था, जहाँ सोनेके महल बने हुए थे। उस नगरमें पुण्डरीक बोले-'शुभे ! तुम कौन हो? कहाँसे यहाँ आयी हो? आदि महा भयङ्कर नाग निवास करते थे। पुण्डरीक मेरे सामने सच-सच बताओ। नामका नाग उन दिनों वहाँ राज्य करता था। गन्धर्व, ललिताने कहा-महामुने ! वीरधन्वा नामवाले किनर और अप्सराएँ भी उस नगरीका सेवन करती थीं। एक गन्धर्व हैं। मैं उन्हीं महात्माकी पुत्री हूँ। मेरा नाम वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था। ललिता है। मेरे स्वामी अपने पाप-दोषके कारण राक्षस उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था। वे दोनों हो गये है। उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं पति-पत्नीके रूपमें रहते थे। दोनों ही परस्पर कामसे है। ब्रह्मन् ! इस समय मेरा जो कर्तव्य हो, वह बताइये । पीड़ित रहा करते थे। ललिताके हृदयमें सदा पतिको ही विप्रवर ! जिस पुण्यके द्वारा मेरे पति राक्षसभावसे मूर्ति बसी रहती थी और ललितके हृदयमे सुन्दरी छुटकारा पा जाय, उसका उपदेश कीजिये। ललिताका नित्य निवास था। एक दिनकी बात है, ऋषि बोले-भद्रे ! इस समय चैत्र मासके संयपु०२२