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उत्तरखण्ड ]
. वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य .
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जाते हैं। अतः सर्वथा प्रयत्न करके कन्याके धनसे बचना युधिष्ठिरने पूछा-जनार्दन ! वैशाख मासके चाहिये-उसे अपने काममें नहीं लाना चाहिये।* जो शुक्ल-पक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? उसका अपनी शक्तिके अनुसार आभूषणोंसे विभूषित करके क्या फल होता है ? तथा उसके लिये कौन-सी विधि है? पवित्र भावसे कन्याका दान करता है, उसके पुण्यकी भगवान् श्रीकृष्ण बोले-महाराज ! पूर्वकालमें संख्या बतानेमें चित्रगुप्त भी असमर्थ हैं। वरूथिनी परम बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि वसिष्ठसे यही बात एकादशी करके भी मनुष्य उसीके समान फल प्राप्त करता पूछी थी, जिसे आज तुम मुझसे पूछ रहे हो। है। व्रत करनेवाला वैष्णव पुरुष दशमी तिथिको काँस, श्रीरामने कहा-भगवन् ! जो समस्त पापोंका उड़द, मसूर, चना, कोदो, शाक, मधु, दूसरेका अन्न, दो क्षय तथा सब प्रकारके दुःखोंका निवारण करनेवाला बार भोजन तथा मैथुन-इन दस वस्तुओंका परित्याग व्रतोंमें उत्तम व्रत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। कर दे। एकादशीको जुआ खेलना, नींद लेना, पान वसिष्ठजी बोले-श्रीराम ! तुमने बहुत उत्तम खाना, दाँतुन करना, दूसरेको निन्दा करना, चुगली खाना, बात पूछी है। मनुष्य तुम्हारा नाम लेनेसे ही सब पापोंसे चोरी, हिंसा, मैथुन, क्रोध तथा असत्य-भाषण-इन शुद्ध हो जाता है। तथापि लोगोंके हितकी इच्छासे मैं ग्यारह बातोंको त्याग दे। द्वादशीको काँस, उड़द, पवित्रोंमें पवित्र उत्तम व्रतका वर्णन करूंगा। वैशाख शराब, मधु, तेल, पतितोसे वार्तालाप, व्यायाम, परदेश- मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका नाम गमन, दो बार भोजन, मैथुन, बैलकी पीठपर सवारी और मोहिनी है। वह सब पापोंको हरनेवाली और उत्तम है। मसूर-इन बारह वस्तुओंका त्याग करे।राजन् ! इस उसके व्रतके प्रभावसे मनुष्य मोहजाल तथा पातकविधिसे वरूथिनी एकादशी की जाती है। रातको जागरण समूहसे छुटकारा पा जाते हैं। करके जो भगवान् मधुसूदनका पूजन करते हैं, वे सब सरस्वती नदीके रमणीय तटपर भद्रावती नामकी फापोंसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होते हैं। अतः पापभीरु सुन्दर नगरी है। वहाँ धृतिमान् नामक राजा, जो चन्द्रमनुष्योंको पूर्ण प्रयत्न करके इस एकादशीका व्रत करना वंशमें उत्पन्न और सत्यप्रतिज्ञ थे, राज्य करते थे। उसी चाहिये। यमराजसे डरनेवाला मनुष्य अवश्य नगरमें एक वैश्य रहता था, जो धन-धान्यसे परिपूर्ण 'वरूथिनी'का व्रत करे। राजन् ! इसके पढ़ने और और समृद्धिशाली था। उसका नाम था धनपाल । वह सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है और मनुष्य सब सदा पुण्यकर्ममें ही लगा रहता था। दूसरोंके लिये पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। पौसला, कुआँ, मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवाया
* कन्यावित्तेन जीवन्ति ये नमः पापमोहिताः ॥ पुण्यक्षयात्ते गच्छन्ति निरयं यातनामयम्। तस्मात् सर्वप्रयालेन न पाह्यं कन्यकाधनम्॥
(५०।१४-१५) +कांस्य मायं मसूरीश चणकान् कोद्रस्तिथा । शाकं मधु परान्नं च पुनभोजनमैथुने ।। वैष्णवो व्रतकर्ता च दशम्यां दश वर्जयेत्॥
(५० । १७-१८) पूतक्रीडा च निद्रां च ताम्बूलं दन्तधावनम् । परापवाद पैशुन्ये सोय हिंसा तथा रतिम्॥ क्रोधं चानृतवाक्यानि होकादश्या विवर्जयेत् ॥
(५०।१९-२०) कास्प माष सुरां क्षौद्रं तैलं पतितभाषणम्॥ व्यायाम च प्रवासं च पुनर्मोजनमैथुमे । वृषपृष्ठ मसूरान द्वादश्यां परिवर्जयेत् ॥
(५०।२०-२१)