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उत्तरखण्ड
• एकादशीके जया आदि भेद, उत्पत्ति-कथा और महिमाका वर्णन .
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युधिष्ठिरने पूछा-भगवन् ! पुण्यमयी एकादशी नामक दानवसे भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं। तिथि कैसे उत्पत्र हुई ? इस संसारमें क्यों पवित्र मानी गयी? तथा देवताओंको कैसे प्रिय हुई ?
श्रीभगवान् बोले-कुन्तीनन्दन ! प्राचीन समयकी बात है, सत्ययुगमें मुर नामक दानव रहता था। वह बड़ा ही अद्भुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओंके लिये भयङ्कर था । उस कालरूपधारी दुरात्मा महासुरने इन्द्रको भी जीत लिया था। सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्गसे निकाले जा चुके थे और शंकित तथा भयभीत होकर पृथ्वीपर विचरा करते थे। एक दिन सब देवता महादेवजीके पास गये। वहाँ इन्द्रने भगवान् शिवके आगे सारा हाल कह सुनाया।
इन्द्र बोले-महेश्वर ! ये देवता स्वर्गलोकसे भ्रष्ट होकर पृथ्वीपर विचर रहे हैं। मनुष्योंमें रहकर इनकी शोभा नहीं होती । देव ! कोई उपाय बतलाइये । देवता किसका सहारा लें?
महादेवजीने कहा-देवराज ! जहाँ सबको F शरण देनेवाले, सबकी रक्षामें तत्पर रहनेवाले जगत्के भक्तवत्सल ! हमें बचाइये । देवदेवेश्वर ! हमें बचाइये। स्वामी भगवान् गरुडध्वज विराजमान हैं, वहाँ जाओ। वे जनार्दन ! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । दानवोंका तुमलोगोंकी रक्षा करेंगे।
विनाश करनेवाले कमलनयन! हमारी रक्षा कीजिये। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-युधिष्ठिर! प्रभो ! हम सब लोग आपके समीप आये हैं। आपकी ही महादेवजीकी बात सुनकर परम बुद्धिमान् देवराज इन्द्र शरणमें आ पड़े हैं। भगवन् ! शरणमें आये हुए सम्पूर्ण देवताओंके साथ वहाँ गये। भगवान् गदाधर देवताओंकी सहायता कीजिये । देव ! आप ही पति, आप क्षीरसागरके जलमें सो रहे थे। उनका दर्शन करके इन्द्रने ही मति, आप ही कर्ता और आप ही कारण हैं। आप ही हाथ जोड़कर स्तुति आरम्भ की।
सब लोगोंकी माता और आप ही इस जगत्के पिता हैं। इन्द्र बोले-देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है.। भगवन् ! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल ! देवता देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं। भयभीत होकर आपको शरणमें आये हैं। प्रभो ! अत्यन्त पुण्डरीकाक्ष ! आप दैत्योंके शत्रु हैं। मधुसूदन ! उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत्यने सम्पूर्ण हमलोगोंकी रक्षा कीजिये। जगन्नाथ ! सम्पूर्ण देवता मुर देवताओंको जीतकर इन्हें स्वर्गसे निकाल दिया है।*
*ॐ नमो देवदेवेश देवदानववन्दित । दैत्यारे पुण्डरीकाक्ष प्राहि नो मधुसूदन ॥ सुराः सर्वे समायाता भयभीताश्च दानवात् । शरणं ला जगन्नाथ आहि नो भक्तवत्सल ॥ त्राहि नो देवदेवेश त्राहि त्राहि जनार्दन । शाहि वै पुण्डरीकाक्ष दानवाना विनाशक ॥ त्वत्समीपं गताः सर्वे त्वामेव शरणं प्रभो । शरणागतदेवाना साहाय्य कुरु वै प्रभो ॥ त्वं पतिस्त्वं मतिदेव त्वं कर्ता स्वं च कारणम् । त्वं माता सर्वलोकानां त्वमेव जगतः पिता ॥ भगवन् देवदेवेश शरणागतवत्सल । शरण तय चायाता भयभीता देवताः ॥ देवता निर्जिताः सर्वाः स्वर्गभ्रष्टाः कृता विभो । अत्युप्रेण हि दैत्येन मुरनाना महौजसा ।। (४० ॥५७-६३)