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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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[संक्षिप्त पद्मपुराण
हैं? देवता है या कोई और ? हमें ठीक-ठीक बताइये। बातोंका यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये।
आकाशवाणी हुई-जो सम्पूर्ण भूतोंके कर्ता भगवान् विष्णुने कहा-द्विजवरो ! इस व्रतको और समस्त भुवनोंके स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान् पुरुष भी जो उत्तम विधि है, उसको श्रवण करो! एकादशीको कठिनतासे देख पाते हैं, वही सनातन विष्णु मै हूँ। प्रातःकाल दन्तधावन करके यह सङ्कल्प करे कि 'हे
देवाधिदेव भगवान् विष्णुका कथन सुनकर उन पुण्डरीकाक्ष ! हे अच्युत ! मैं एकादशीको निराहार ब्राकुमार महर्षियोंके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उन्हें रहकर दूसरे दिन भोजन करूँगा। आप मुझे शरणमें बड़ा विस्मय हुआ। वे आदि-अन्तरहित भगवान्की रखें।' ऐसा नियम लेनेके बाद पतित, चोर, पाखण्डी, स्तुति करने लगे।
दुराचारी, मर्यादा भंग करनेवाले तथा गुरुपत्नीगामी, ऋषि बोले-सम्पूर्ण भूतोंके आत्मभूत, आत्मा मनुष्योंसे वार्तालाप न करे। अपने मनको वशमें रखते एवं परमात्माको नमस्कार है। अपनी महिमासे कभी हुए नदीमें, पोखरेमें, कुएँपर अथवा घरमें ही स्नान करे । च्युत न होनेवाले अच्युतको नित्य प्रणाम है। अन्तरहित स्रानके पहले शरीरमें मिट्टी लगाये। परमेश्वरको बारम्बार प्रणाम है। दामोदर, कवि (सर्वज्ञ) - मृत्तिका लगानेका मन्त्र
और यज्ञेश्वरको नमस्कार है। मायापते ! आपको प्रणाम अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे। है। आप विश्वके स्वामी हैं; आपको नमस्कार है। मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोट्यां समर्जितम् ॥ ___ ऋषियोंके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् श्रीहरि
(४७/४३) संतुष्ट हुए और बोले–महर्षियो ! तुम्हें कौन-सा 'वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते अभीष्ट वरदान हूँ?'
हैं तथा वामन अवतारके समय भगवान् विष्णुने भी तुम्हें ... ऋषि बोले-भगवन् ! यदि आप संतुष्ट हैं तो अपने पैरोंसे नापा था। मृत्तिके ! मैंने करोड़ों जन्मोंमें जो हमलोगोंके हितके लिये कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो पाप किये है, मेरे उन सब पापोंको हर लो।' स्वर्ग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला हो।
सान-मन्त्र श्रीविष्णु बोले-महर्षियो ! फाल्गुन शुक्लपक्षमें त्वं मातः सर्वभूतानां जीवन तत्तु रक्षकम् । यदि पुष्य नक्षत्रसे युक्त द्वादशी हो तो वह महान् पुण्य स्वेदजोद्धिजजातीनां रसानां पतये नमः ।। देनेवाली और बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाली होती मातोऽहं सर्वतीर्थेषु हृदप्रस्रवणेषु च। है। द्विजवरो ! उसमें जो विशेष कर्तव्य है, उसको सुनो। नदीषु देवखातेषु इदं स्रानं तु मे भवेत् ॥ आमलकी एकादशीमें आँवलेके वृक्षके पास जाकर वहाँ
(४७।४४-४५) रात्रिमें जागरण करना चाहिये । इससे मनुष्य सब पापोंसे 'जलकी अधिष्ठात्री देवी ! मातः ! तुम सम्पूर्ण छूट जाता और सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त करता है। भूतोंके लिये जीवन हो। वही जीवन, जो स्वेदज और विप्रगण ! यह व्रतोंमें उत्तम व्रत है, जिसे मैंने उद्धिज जातिके जीवोंका भी रक्षक है। तुम रसोंकी तुमलोगोंको बताया है।
स्वामिनी हो। तुम्हें नमस्कार है। आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, __ऋषि बोले-भगवन्! इस व्रतकी विधि कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरोंमें स्नान बतलाइये। यह कैसे पूर्ण होता है? इसके देवता, कर चुका। मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानोंका फल नमस्कार और मन्त्र कौन-से बताये गये हैं ? उस समय देनेवाला हो।' नान और दान कैसे किया जाता है ? पूजनकी कौन-सी विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह परशुरामजीको विधि है तथा उसके लिये मन्त्र क्या है? इन सब सोनेको प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति और
प्रजानां पतयः सर्वे फलेव व्यवस्थिताः । सर्वदेवमयी होषा धात्री च कथिता मया ॥ (४७।२०-२३)