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पातालखण्ड] - वैशाख-माहात्म्यके प्रसङ्गमें राजा महीरथकी कथा और यम-ब्राह्मण-संवादका उपसंहार .
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कष्टदायक बताया गया है। व्यसनमें पड़े हुए राजाकी बड़ा चञ्चल है, जीवन उसीके अधीन है। ऐसी स्थितिमें अधोगति होती है और जो व्यसनसे दूर रहता है, वह भी कौन मनुष्य धर्मके आचरणमें विलम्ब करेगा। स्वर्गलोकमें जाता है।* व्यसन और दुःख विशेषतः राजन् ! जो वृद्धावस्थाको प्राप्त हो चुका है, उसका चित्त कामसे ही उत्पन्न होते हैं; अतः कामका परित्याग करो। भी इन निषिद्ध विषयोंकी ओरसे नहीं हटता; हाय ! यह पापोंमें फंस जानेपर वैभव एवं भोग स्थिर नहीं रहते; वे कितने शोककी बात है। पृथ्वीनाथ ! इस कामके मोहमें शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। चलते, रुकते, जागते और पड़कर तुम्हारी सारी उम्र व्यर्थ बीत-गयी, अब भी तो सोते समय भी जिसका चित्त विचारमें संलग्न नहीं रहता अपने हित-साधनमें लगो। राजन् ! तुम्हारे लिये वह जीते-जी भी मरे हुएके ही तुल्य है। विद्वान् पुरुष सर्वोत्तम हितकी बात कहता हूँ; क्योंकि मैं तुम्हारा विषय-चिन्ता छोड़कर समतापूर्ण, स्थिर एवं व्यावहारिक पुरोहित और तुम्हारे भले-बुरे कर्मोका भागी हूँ। युक्तिसे परमार्थका साधन करते हैं। जीवका चित्त मुनीश्वरोंने ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरुपत्नीगमन आदि बालककी भाँति चपल होता है; अतः उससे बलपूर्वक महापातक बताये है; उनमेसे मनुष्योद्वारा मन, वाणी और काम लेना चाहिये। राजन् ! धर्मके तत्त्वदर्शी वृद्ध शरीरसे भी किये हुए जो पाप हैं, उन्हें वैशाख मास नष्ट पुरुषोंकी बुद्धिका सहारा ले पराबुद्धिके द्वारा अपने कर देता है। जैसे सूर्य अन्धकारका नाश करता है, उसी कुपथगामी चितको वशमे करना चाहिये। लौकिक धर्म, प्रकार वैशाख मांस पापरूपी महान् अन्धकारको सर्वथा मित्र, भाई-बन्धु, हाथ-पैरोंका चलाना, देशान्तरमें जाना, नष्ट कर डालता है। इसलिये तुम विधिपूर्वक वैशाखशरीरसे केश उठाना तथा तीर्थके लिये यत्न करना आदि व्रतका पालन करो। राजन् ! मनुष्य वैशाख मासकी कोई भी परमपदको प्राप्तिमें सहायता नहीं कर सकते; विधिके अनुष्ठानद्वारा होनेवाले पुण्यके प्रभावसे केवल परमात्मामें मन लगाकर उनका नाम-जप करनेसे जन्मभरके किये हुए घोर पापोका परित्याग करके ही उस पदकी प्राप्ति होती है।
.. परमधामको प्राप्त होता है। इसलिये महाराज ! तुम भी इसलिये राजन् ! विद्वान् पुरुषको उचित है कि वह इस वैशाख मासमे प्रातःस्रान करके विधिपूर्वक भगवान् विषयोंमें प्रवृत्त हुए चित्तको रोकनेके लिये यन करे। मधुसूदनकी पूजा करो। जिस प्रकार कूटने-अँटनेकी यत्नसे वह अवश्य ही वशमें हो जाता है। यदि मनुष्य क्रियासे चावलकी भूसी छूट जाती है, मांजनेसे ताँबेकी मोहमें पड़ जाय-स्वयं विचार करने में असमर्थ हो जाय कालिख मिट जाती है, उसी प्रकार शुभ कर्मका अनुष्ठान तो उसे विद्वान् सुहृदोंके पास जाकर प्रश्न करना चाहिये। करनेसे पुरुषके अन्तःकरणका मल घुल जाता है। वे पूछनेपर यथोचित कर्तव्यका उपदेश देते हैं। राजाने कहा-सौम्य स्वभाववाले गुरुदेव ! कल्याणको इच्छा रखनेवालेको हर एक उपायसे काम आपने मुझे वह अमृत पिलाया, जिसका आविर्भाव
और क्रोधका निग्रह करना चाहिये; क्योंकि वे दोनों समुद्रसे नहीं हुआ है। आपका वचन संसाररूपी रोगका कल्याणका विघात करनेके लिये उद्यत रहते हैं। राजन् ! निवारण तथा दुव्र्यसनोंसे मुक्त करनेवाला द्रव्यभिन्न काम बड़ा बलवान् है; वह शरीरके भीतर रहनेवाला औषध है। आपने कृपा करके मुझे आज इस औषधका महान् शत्रु है। श्रेयकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको पान कराया है। विप्रवर ! सत्पुरुषोंका समागम उसके अधीन नहीं होना चाहिये। अतः विधिपूर्वक मनुष्योंको हर्ष प्रदान करनेवाली, उनके पापको दूर पालन किया हुआ धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है । इसलिये तुम भगानेवाली तथा जरा-मृत्युका अपहरण करनेवाली धैर्य धारण करके धर्मका ही आचरण करो। यह श्वास संजीवनी बूटी है। इस पृथ्वीपर जो-जो मनोरथ दुर्लभ
• व्यसनस्य च मूल्योश व्यसनं कष्टमुच्यते । व्यसन्यधोऽधो बजति स्थर्याल्पव्यसनी नृपः ।। (९५। ३१)