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उत्तरखण्ड]
. त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा .
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मोक्ष प्रदान करते हैं। जैसे ग्रहोंमें सूर्य और नक्षत्रोंमें चन्द्रमा तीर्थका सेवन करके वैकुण्ठलोकको प्राप्त होते हैं। श्रेष्ठ है, उसी प्रकार महीनों में माघ मास श्रेष्ठ है। यह सभी दिव्यलोकमें रहनेवाले जो वसिष्ठ और सनकादि ऋषि हैं, वे कोंके लिये उत्तम है। विद्वन् ! यह माघ-मकरका योग भी प्रयागतीर्थका बारंबार सेवन करते हैं। विष्णु, रुद्र और चराचर त्रिलोकीके लिये दुर्लभ है। जो इसमें यत्नपूर्वक इन्द्र भी तीर्थप्रवर प्रयागमें निवास करते हैं। प्रयागमें दान सात, पाँच अथवा तीन दिन भी प्रयाग-म्रान कर लेता है, और नियमोंके पालनकी प्रशंसा होती है। वहाँ सान और उसका अभ्युदय होता है। मनुष्य आदि चराचर जीव प्रयाग जलपान करनेसे पुनर्जन्म नहीं होता।
त्रिरात्र तलसीव्रतकी विधि और महिमा
प्राथना कर
नारदजी बोले-भगवन् ! आपकी कृपासे मैंने वाटिकाको केवल जलसे सींचे। फिर देवाधिदेव तुलसीके माहात्म्यका श्रवण किया । अब त्रिरात्र तुलसी- जगद्गुरु भगवानको पञ्चामृतसे स्नान कराकर इस प्रकार व्रतका वर्णन कीजिये।
प्रार्थना करेमहादेवजीने कहा-विद्वन् ! तुम बड़े बुद्धिमान्
प्रार्थना-पत्र हो, सुनो; यह व्रत बहुत पुराना है। इसका श्रवण करके योऽनन्तरूपोऽखिलविश्वरूपो मन मनुष्य निश्चय ही सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। नारद! मागभोंदके लोकविधि बिभर्ति । व्रत करनेवाला पुरुष कार्तिक शुक्लपक्षको नवमी तिथिको प्रसीदतामेव स देवदेवो नियम ग्रहण करे । पृथ्वीपर सोये और इन्द्रियोंको काबूमें । यो मायया विश्वकदेव रूपी॥ रखे। त्रिरात्रव्रत करनेके उद्देश्यसे वह शौच-नानसे जिनके रूपका कहीं अन्त नहीं है, सम्पूर्ण विश्व शुद्ध हो मनको संयममें रखते हुए प्रतिदिन रातको जिनका स्वरूप है, जो गर्भरूप (आधारभूत) जलमें नियमपूर्वक तुलसीवनके समीप शयन करे। मध्याह्न- स्थित होकर लोकसष्टिका भरण-पोषण करते हैं और कालमें नदी आदिके निर्मल जलमे नान करके विधि- मायासे ही रूपवान् होकर समस्त संसारको सृष्टि करते पर्वक देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। इस व्रतमें है. वे देवदेव परमेश्वर मुझपर प्रसन्न हो।' पूजाके लिये लक्ष्मी और श्रीविष्णुको सुवर्णमयी प्रतिमा बनवानी चाहिये तथा उनके लिये दो वस्त्र भी तैयार करा
आगच्छाच्युत देवेश तेजोराशे । जगत्पते । लेने चाहिये। वस्त्र पौत और श्वेत वर्णके हो। व्रतके
सदैव तिमिरध्वंसिस्वाहि मां भवसागरात् ।। आरम्भमें विधिपूर्वक नवग्रह-शान्ति कराये, उसके बाद चरु पकाकर उसके द्वारा श्रीविष्णु देवताकी प्रीतिके लिये
'हे अच्युत ! हे देवेश्वर ! हे तेजःपुञ्ज जगदीश्वर ! हवन करे। द्वादशीके दिन देवदेवेश्वर भगवानकी यहाँ पधारिय: आप सदा ही अज्ञानान्धकारका नाश यत्नपूर्वक पूजा करके विधिके अनुसार कलश स्थापन
करनेवाले हैं, इस भवसागरसे मेरी रक्षा कीजिये।' करे। कलश शुद्ध हो और फूटा-टूटा न हो। उसमें
मान-मन्त्र 12 पञ्चरत्न, पञ्चपल्लव तथा ओषधियाँ पड़ी हों। कलशके पञ्जामृतेन सुत्रातस्तथा गोदकेन च। ऊपर एक पात्र रखे और उसके भीतर लक्ष्मीजीके साथ गङ्गादीनां च तोयेन खातोऽनन्तः प्रसीदतु ॥ भगवान् विष्णुकी प्रतिमाको विराजमान करे। फिर वैदिक - 'पञ्चामृत और चन्दनयुक्त जलसे भलीभांति और पौराणिक मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए तुलसी- नहाकर गङ्गा आदि नदियोंके जलसे स्नान किये हुए वृक्षके मूलमें भगवत्प्रतिमाकी स्थापना करे । तुलसीकी भगवान् अनन्त मुझपर प्रसन्न हो।'