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उत्तरखण्ड]
• पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य . ............................................................................................. मिलता है, वह त्रिस्पृशाके उपवाससे मनुष्य प्राप्त कर प्रकार त्रिस्पृशा सब व्रतोंमें उत्तम बतायी गयी है। जिसने लेता है। द्विजश्रेष्ठ ! जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इसका व्रत किया, उसने सम्पूर्ण व्रतोंका अनुष्ठान कर अथवा अन्य जातिके लोग भगवान् श्रीकृष्णमें मन लिया। पूर्वकालमें स्वयं ब्रह्माजीने इस व्रतको किया था, लगाकर इस व्रतको करते हैं, वे सब इस धराधामको तदनन्तर अनेकों ऋषियोंने भी इसका अनुष्ठान किया; छोड़नेपर मुक्त हो जाते हैं। इसमें द्वादशाक्षर मन्त्रका जप फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है। नारद ! यह त्रिस्पृशा करना चाहिये। यह मन्त्रोंमें मन्त्रराज माना गया है। इसी मोक्ष देनेवाली है।
। पक्षवर्थिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
नारदजीने पूछा-महादेव ! 'पक्षवर्धिनी' घुटनोंकी, 'ज्ञानगम्याय नमः' से दोनों जाँघोंकी, नामवाली तिथि कैसी होती है, जिसका व्रत करनेसे 'ज्ञानप्रदाय नमः' से कटिभागकी, 'विश्वनाथाय नमः मनुष्य महान् पापसे छुटकारा पा जाता है? से उदरकी, 'श्रीधराय नमः'से हृदयकी, 'कौस्तुभ
श्रीमहादेवजी बोले-यदि अमावास्या अथवा कण्ठाय नमः'से कण्ठकी, 'क्षत्रान्तकारिणे नमः' से पूर्णिमा साठ दण्डकी होकर दिन-रात अविकल रूपसे दोनों बाँहोंकी, 'व्योममूळ नमः' से ललाटकी तथा रहे और दूसरे दिन प्रतिपदमें भी उसका कुछ अंश चला 'सर्वरूपिणे नमः' से सिरकी पूजा करनी चाहिये। इसी गया हो तो वह पक्षवर्धिनी' मानी जाती है। उस पक्षको प्रकार भिन्न-भिन्न अस्त्रोंका भी उनके नाममन्त्रद्वारा पूजन एकादशीका भी यही नाम है, वह दस हजार अश्वमेध करना उचित है। अन्तमें "दिव्यरूपिणे नमः' कहकर यज्ञोके समान फल देनेवाली होती है। अब उस दिन की भगवान्के सम्पूर्ण अङ्गोकी पूजा करनी चाहिये। जानेवाली पूजाविधिका वर्णन करता हूँ, जिससे भगवान् इस तरह विधिवत् पूजन करके विद्वान् पुरुष सुन्दर लक्ष्मीपतिको संतोष प्राप्त होता है। सबसे पहले जलसे नारियलके द्वारा चक्रधारी देवदेव श्रीहरिको अर्घ्य प्रदान भरे हुए कलशकी स्थापना करनी चाहिये। कलश नवीन करे। इस अर्घ्यदानसे ही व्रत पूर्ण होता है। अर्घ्यदानका हो-फूटा-टूटा न हो और चन्दनसे चर्चित किया गया मन्त्र इस प्रकार हैहो। उसके भीतर पशरत्न डाले गये हों तथा वह कलश संसारार्णवमग्न भो मामुद्धर जगत्पते । फूलकी मालाओंसे आवृत हो । उसके ऊपर एक ताँबेका त्वमीशः सर्वलोकानां त्वं साक्षाच जगत्पतिः ॥ पात्र रखकर उसमें गेहूँ भर देना चाहिये। उस पात्रमें गृहाणार्य मया दत्तं पद्मनाभ नमोऽस्तु ते। भगवान्के सुवर्णमय विग्रहकी स्थापना करे। जिस
(३८ । १४-१५) मासमे पक्षवर्धिनी तिथि पड़ी हो, उसीका नाम 'जगदीश्वर ! मैं संसारसागरमें डूब रहा हूँ, मेरा भगवद्विग्रहका भी नाम समझना चाहिये । जगत्के स्वामी उद्धार कीजिये। आप सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर तथा साक्षात् देवेश्वर जगन्नाथका स्वरूप अत्यन्त मनोहर बनवाना जगत्पति परमेश्वर हैं। पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है। चाहिये। फिर विधिपूर्वक पचामृतसे भगवान्को नहलाना मेरा दिया हुआ अर्घ्य स्वीकार कीजिये।' तथा कुङ्कम, अरगजा और चन्दनसे अनुलेप करना तत्पश्चात् भगवान् केशवको भक्तिपूर्वक भांतिचाहिये। फिर दो वस्त्र अर्पण करने चाहिये; उनके साथ भाँतिके नैवेद्य अर्पण करे, जो मनको अत्यन्त प्रिय छत्र और जूते भी हों। इसके बाद कलशपर विराजमान लगनेवाले और मधुर आदि छहों रसोंसे युक्त हों। इसके देवेश्वर श्रीहरिकी पूजा आरम्भ करे। 'पद्मनाभाय नमः' बाद भगवानको भक्तिके साथ कर्पूरयुक्त ताम्बूल निवेदन कहकर दोनों चरणोंकी, 'विश्वमूर्तये नमः' बोलकर दोनों करे। घी अथवा तिलके तेलसे दीपक जलाकर रखे।