________________
उत्तरखण्ड
• त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा •
६३५
दशाओं तथा अन्तर्दशाओंमें ग्रह-पौड़ाका निवारण करके वे शनैश्चरको नमस्कार करके उनकी आज्ञा ले रथपर मैं सदा उसको रक्षा करूंगा। इसी विधानसे सारा संसार सवार हो बड़े वेगसे अपने स्थानको चले गये। उन्होंने पीड़ासे मुक्त हो सकता है। रघुनन्दन ! इस प्रकार मैंने कल्याण प्राप्त कर लिया था। जो शनिवारको सबेरे युक्तिसे तुम्हें वरदान दिया है।
उठकर इस स्तोत्रका पाठ करत है तथा पाठ होते समय महादेवजी कहते हैं-नारद ! वे तीनों वरदान जो श्रद्धापूर्वक इसे सुनता है, वह मनुष्य पापसे मुक्त हो पाकर उस समय राजा दशरथने अपनेको कृतार्थ माना। स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
...
. त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
नारदजी बोले-सर्वेश्वर ! अब आप विशेष त्रिस्पृशा एकादशी हो तो वह करोड़ों पापोंका नाश रूपसे त्रिस्पशा नामक व्रतका वर्णन कीजिये, जिसे करनेवाली है। विप्रवर ! और पापोंकी तो बात ही क्या है, सुनकर लोग तत्काल कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। त्रिस्पशाके व्रतसे ब्रह्महत्या आदि महापाप भी नष्ट हो जाते
महादेवजीने कहा-विद्वन् ! पूर्वकालमें सम्पूर्ण हैं। प्रयागमें मृत्यु होनेसे तथा द्वारकामें श्रीकृष्णके निकट लोकोंके हितकी इच्छासे सनत्कुमारजीने व्यासजीके प्रति गोमतीमें स्नान करनेसे शाश्वत मोक्ष प्राप्त होता है, परन्तु इस व्रतका वर्णन किया था। यह व्रत सम्पूर्ण पाप- त्रिस्पृशाका उपवास करनेसे घरपर भी मुक्ति हो जाती है। राशिका शमन करनेवाला और महान् दुःखोका विनाशक इसलिये विप्रवर नारद ! तुम मोक्षदायिनी त्रिस्पृशाके है। विप्र! त्रिस्पृशा नामक महान् व्रत सम्पूर्ण व्रतका अवश्य अनुष्ठान करो। विप्र ! पूर्वकालमें कामनाओंका दाता माना गया है। ब्राह्मणोंके लिये तो भगवान् माधवने प्राची सरस्वतीके तटपर गङ्गाजीके प्रति मोक्षदायक भी है। महामुने ! जो प्रतिदिन 'त्रिस्पृशा'का कृपापूर्वक त्रिस्मशा-व्रतका वर्णन किया था। ... नामोच्चारण करता है, उसके समस्त पापोंका क्षय हो जाता गङ्गाने पूछा-हषीकेश ! ब्रह्महत्या आदि करोड़ो है। देवाधिदेव भगवान्ने मोक्ष-प्राप्तिके लिये इस व्रतको पाप-राशियोंसे युक्त मनुष्य मेरे जलमें स्नान करते हैं, सृष्टि की है, इसीलिये इसे 'वैष्णवी तिथि' कहते हैं। उनके पापों और दोषोंसे मेरा शरीर कलुषित हो गया है। इन्द्रियोंका निग्रह न होनेसे मनमें स्थिरता नहीं आती देव ! गरुडध्वज ! मेरा वह पातक कैसे दूर होगा? [मनकी यह अस्थिरता ही मोक्षमें बाधक है] । ब्रह्मन्! प्राचीमाधव बोले-शुभे ! तुम त्रिस्पृशाका व्रत जो ध्यान-धारणासे वर्जित, विषयपरायण तथा काम- करो। यह सौ करोड़ तीर्थोंसे भी अधिक महत्त्वशालिनी भोगमें आसक्त है, उनके लिये त्रिस्पशा ही मोक्षदायिनी है। करोड़ों यज्ञ, व्रत, दान, जप, होम और सांख्ययोगसे है। मुनिश्रेष्ठ ! पूर्वकालमें जब चक्रधारी श्रीविष्णुके द्वारा भी इसकी शक्ति बढ़ी हुई है। यह धर्म, अर्थ, काम और क्षीरसागरका मन्थन हो रहा था, उस समय चरणोंमें पड़े मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थोंको देनेवाली है। नदियोंमें श्रेष्ठ हुए देवताओंके मध्यमें ब्रह्माजीसे मैंने ही इस व्रतका गङ्गा ! त्रिस्पृशा-व्रत जिस-किसी महीनेमें भी आये तथा वर्णन किया था। जो लोग विषयोंमें आसक्त रहकर भी वह शुक्लपक्षमें हो या कृष्णपक्षमें, उसका अनुष्ठान करना त्रिस्मशाका व्रत करेंगे, उनके लिये भी मैंने मोक्षका ही चाहिये। उसे करके तुम पापसे मुक्त हो जाओगी। अधिकार दे रखा है। नारद ! तुम इस व्रतका अनुष्ठान जब एक ही दिन एकादशी, द्वादशी तथा रात्रिके अन्तिम करो, क्योंकि त्रिस्पृशा मोक्ष देनेवाली है। महामुने! प्रहरमें त्रयोदशी भी हो तो उसे 'त्रिस्पृशा' समझना बड़े-बड़े मुनियोंके समुदायने इस व्रतका पालन किया चाहिये। उसमें दशमीका योग नहीं होता। देवनदी ! है। यदि कार्तिक शुक्लपक्षमें सोमवार या बुधवारसे युक्त एकादशी-व्रतमें दशमी-वेधका दोष मैं नहीं क्षमा करता।