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• अर्वयस्य हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
ऐसा जानकर दशमीयुक्त एकादशीका व्रत नहीं करना इस प्रकार विधिवत् पूजा करके विधिके अनुसार चाहिये। उसे करनेसे करोड़ों जन्मोंके किये हुए पुण्य अर्घ्य देना चाहिये। जलयुक्त शङ्खके ऊपर सुन्दर तथा संतानका नाश होता है। वह पुरुष अपने वंशको नारियल रखकर उसमें रक्षासूत्र लपेट दे। फिर दोनों स्वर्गसे गिराता और रौरव आदि नरकोंमें पहुँचाता है। हाथोंमें वह शङ्ख आदि लेकर निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़ेअपने शरीरको शुद्ध करके मेरे दिन-एकादशीका व्रत स्मृतो हरसि पापानि यदि नित्यं जनार्दन ।। करना चाहिये। द्वादशी मुझे अत्यन्त प्रिय है, मेरी दुःस्वप्नं दुर्निमित्तानि मनसा दुर्विचिन्तितम्। आज्ञासे इसका व्रत करना उचित है।
नारकं तु भयं देव भयं दुर्गतिसंभवम् ।। गङ्गा बोली-जगन्नाथ ! आपके कहनेसे यन्त्रम स्यान्महादेव ऐहिकं पारलौकिकम्। मैं त्रिस्पृशाका व्रत अवश्य करूंगी, आप मुझे इसकी तेन देवेश मां रक्ष गृहाणार्घ्य नमोऽस्तु ते॥ विधि बताइये।
सदा भक्तिर्ममैवास्तु दामोदर तवोपरि । ८५ प्राचीमाधवने कहा-सरिताओमे उत्तम गङ्गा
(३५। ६९-७२) देवी ! सुनो, मैं त्रिस्पृशाका विधान बताता हूँ। इसका 'जनार्दन ! यदि आप सदा स्मरण करनेपर मनुष्यके श्रवण मात्र करनेसे भी मनुष्य पातकोंसे मुक्त हो जाता है। सब पाप हर लेते हैं तो देव ! मेरे दुःस्वप्न, अपशकुन, अपने वैभवके अनुसार एक या आधे पल सोनेकी मेरी मानसिक दुचिन्ता, नारकीय भय तथा दुर्गतिजन्य त्रास प्रतिमा बनवानी चाहिये । इसके बाद एक ताँबेके पात्रको हर लीजिये। महादेव ! देवेश्वर ! मेरे लिये इहलोक तथा तिलसे भरकर रखे और जलसे भरे हुए सुन्दर कलशको परलोकमें जो भय हैं, उनसे मेरी रक्षा कीजिये तथा यह स्थापना करे, जिसमें पञ्चरत्र मिलाये गये हो। कलशको अर्घ्य ग्रहण कीजिये। आपको नमस्कार है। दामोदर ! फूलोको मालाओसे आवेष्टित करके कपूर आदिसे सदा आपमें ही मेरी भक्ति बनी रहे।' सुवासित करे। इसके बाद भगवान् दामोदरको स्थापित तत्पश्चात् धूप, दीप और नैवेद्य अर्पण करके करके उन्हें स्नान कराये और चन्दन चढ़ाये। फिर भगवान्की आरती उतारे । उनके मस्तकपर शङ्ग घुमाये । भगवान्को वस्त्र धारण कराये। तदनन्तर पुराणोक्त यह सब विधान पूरा करके सद्गुरुकी पूजा करे। उन्हें सामयिक सुन्दर पुष्प तथा कोमल तुलसीदलसे सुन्दर वस्त्र, पगड़ी तथा अंगा दे। साथ ही जूता, छत्र, भगवानकी पूजा करे। उन्हें छत्र और उपानह (जूतियाँ) अंगूठी, कमण्डलु, भोजन, पान, सप्तधान्य तथा दक्षिणा अर्पण करे ! मनोहर नैवेद्य और बहुत-से सुन्दर-सुन्दर दे। गुरु और भगवानको पूजाके पश्चात् श्रीहरिके समीप फलोंका भोग लगाये। यज्ञोपवीत तथा नूतन एवं सुदृढ जागरण करे। जागरणमें गीत, नृत्य तथा अन्यान्य उत्तरीय वस्त्र चढ़ाये। सुन्दर ऊँची बाँसकी छड़ी भी भेट उपचारोंका भी समावेश रहना चाहिये । तदनन्तर रात्रिके करे। 'दामोदराय नमः' कहकर दोनों चरणोंकी, अन्तमें विधिपूर्वक भगवानको अर्घ्य दे नान आदि कार्य 'माधवाय नमः' से दोनों घुटनोंकी, 'कामप्रदाय नमः'से करके ब्राह्मणोंको भोजन करानेके पश्चात् स्वयं भोजन करे। गुह्मभागकी तथा 'वामनमूर्तये नमः' कहकर कटिकी महादेवजी कहते हैं-ब्रह्मन् ! 'त्रिस्पृशा' व्रतका पूजा करे। 'पद्मनाभाय नमः'से नाभिकी, 'विश्वमूर्तये यह अद्भुत उपाख्यान सुनकर मनुष्य गङ्गातीर्थमें स्नान नमः'से पेटकी, 'ज्ञानगम्याय नमः' से हृदयको, करनेका पुण्य-फल प्राप्त करता है । त्रिस्पृशाके उपवाससे 'वैकुण्ठगामिने नमः' से कण्ठकी, 'सहस्रबाहवे नमः' हजार अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञोंका फल मिलता से बाहुओंकी, 'योगरूपिणे नमः' से नेत्रोकी, है। यह व्रत करनेवाला पुरुष पितृकुल, मातृकुल तथा 'सहस्रशीणे नमः' से सिरकी तथा 'माधवाय नमः' पत्नीकुलके सहित विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। कहकर सम्पूर्ण अङ्गोकी पूजा करनी चाहिये। करोड़ों तीर्थोंमें जो पुण्य तथा करोड़ों क्षेत्रोंमें जो फल