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उत्तरखण्ड
• तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य .
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तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
शिवजी बोले-नारद ! सुनो; अब मैं तुलसीका जो ब्राह्मण तुलसी-काष्ठकी अग्निमें हवन करते हैं, माहात्म्य बताता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य जन्मसे लेकर उन्हें एक-एक सिक्थ (भातके दाने) अथवा एक-एक मृत्युपर्यन्त किये हुए पापसे छुटकारा पा जाता है। तिलमें अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। जो भगवान्को तुलसीका पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना तुलसी-काष्ठका धूप देता है, वह उसके फलस्वरूप सौ
और मिट्टी आदि सभी पावन हैं।* जिनका मृत शरीर यज्ञानुष्ठान तथा सौ गोदानका पुण्य प्राप्त करता है। जो तुलसी-काष्ठकी आगसे जलाया जाता है, वे तुलसीकी लकड़ीकी आँचसे भगवानका नैवेद्य तैयार विष्णुलोकमें जाते हैं। मृत पुरुष यदि अगम्यागमन आदि करता है, उसका वह अत्र यदि थोड़ा-सा भी भगवान् महान् पापोंसे ग्रस्त हो, तो भी तुलसी-काष्ठकी अग्निसे केशवको अर्पण किया जाय तो वह मेरुके समान देहका दाह-संस्कार होनेपर वह शुद्ध हो जाता है। जो अन्नदानका फल देनेवाला होता है। जो तुलसी-काष्ठको मृत पुरुषके सम्पूर्ण अङ्गामें तुलसीका काष्ठ देकर पश्चात् आगसे भगवान के लिये दीपक जलाता है, उसे दस उसका दाह-संस्कार करता है, वह भी पापसे मुक्त हो मोर
मुक्त हा करोड़ दीप-दानका पुण्य प्राप्त होता है। इस लोकमें जाता है। जिसकी मृत्युके समय श्रीहरिका कीर्तन और
पृथ्वीपर उसके समान वैष्णव दूसरा कोई नहीं दिखायी स्मरण हो तथा तुलसीकी लकड़ीसे जिसके शरीरका दाह देता। जो भगवान श्रीकृष्णको तुलसी-काष्ठका चन्दन किया जाय, उसका पुनर्जन्म नही होता। यदि दाह
__ अर्पण करता तथा उनके श्रीविग्रहमें उस चन्दनको संस्कारके समय अन्य लकड़ियोंके भीतर एक भी
भक्तिपूर्वक लगाता है। वह सदा श्रीहरिके समीप रमण तुलसीका काष्ठ हो तो करोड़ों पापोंसे युक्त होनेपर भी मनुष्यको मुक्ति हो जाती है। तुलसीकी लकड़ीसे
करता है। जो मनुष्य अपने अङ्गमें तुलसीकी कीचड़ मिश्रित होनेपर सभी काष्ठ पवित्र हो जाते हैं।
लगाकर श्रीविष्णुका पूजन करता है, उसे एक ही दिनमें तुलसी-काष्ठकी अग्निसे मृत मनुष्यका दाह होता देख ।
- सौ दिनोंके पूजनका पुण्य मिल जाता है। जो पितरोंके विष्णटत ही आकर उसका
पिण्डमें तुलसीदल मिलाकर दान करता है, उसके दिये दूत उसे नहीं ले जा सकते। वह करोड़ों जन्मोंके पापसे हुए एक दिनके पिण्डसे पितरोंको सौ वर्षोंतक तृप्ति बनी मुक्त हो भगवान् विष्णुको प्राप्त होता है। जो मनुष्य रहती है। तुलसीकी जड़की मिट्टीके द्वारा विशेषरूपसे तुलसी-काष्ठकी अग्निमें जलाये जाते हैं, उन्हें विमानपर स्नान करना चाहिये। इससे जबतक वह मिट्टी शरीरमे बैठकर वैकुण्ठमें जाते देख देवता उनके ऊपर पुष्पाञ्जलि लगी रहती है, तबतक स्रान करनेवाले पुरुषको तीर्थचढ़ाते है। ऐसे पुरुषको देखकर भगवान विष्ण और खानका फल मिलता है। जो तुलसीकी नयी मञ्जरीसे शिव संतुष्ट होते हैं तथा श्रीजनार्दन उसके सामने जा भगवानकी पूजा करता है, उसे नाना प्रकारके पुष्पोद्वारा हाथ पकड़कर उसे अपने धाममें ले जाते हैं। जिस किये हुए पूजनका फल प्राप्त होता है । जबतक सूर्य और अग्निशाला अथवा श्मशानभूमिमें घीके साथ तुलसी- चन्द्रमा हैं, तबतक वह उसका पुण्य भोगता है। जिस काष्ठकी अग्नि प्रज्वलित होती है, वहाँ जानेसे मनुष्योंका घरमें तुलसी-वृक्षका बगीचा है, उसके दर्शन और पातक भस्म हो जाता है।
स्पर्शसे भी ब्रह्महत्या आदि सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
* पत्र पुष्पं फलं मूलं शाखा स्वक् स्कन्भासंशितम् । तुलसीसंभव सर्व पावन मृत्तिकादिकम् ॥ (२४ । २) + योकं तुलसोकाष्ठं मध्ये काष्ठस्य तस्य हि । दाहकाले भवेयुक्तिः कोटिपापयुतस्य च ॥ (२४।७)