________________
६१८
. अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
.
.
.
.
.
.
.
.
.
मन्ये नात्मकृतिर्न पूर्वपुरुषप्राप्तेर्बल चात्र त- सर्वात्मन्निजदर्शनेन च गयानाद्धेन वै दैवतान् । नापीदं स्वजनप्रमाणमचलं किं शापतापादिकम्। प्रीणन् विश्वमनोहवत् कथमिहौदासीन्यमालम्बसे । या दुष्प्रापगयाप्रयागयमुनाकाशीषु पर्वागमात् किं ते सर्वद निर्दयत्वमधुना किं वा प्रभुत्वं कलेः । प्राप्तिस्तत्र महाफलो विजयते श्रीशारवानुग्रहः ॥ किं वा सत्त्वनिरीक्षणं नृषु विरं किं वास्य सेवारुतिः ॥
कोई पुण्यपर्व आनेपर जो गया, प्रयाग, यमुना और सर्वात्मन् ! आप अपने दर्शनसे तथा गयामें किये काशी आदि दुर्लभ तीर्थोंमें आनेका सौभाग्य प्राप्त होता जानेवाले श्राद्धसे देवताओसहित सम्पूर्ण विश्वको तृप्त है, उसमें महान् फलदायक भगवती शारदाका अनुग्रह करते हैं; फिर मेरे सामने क्यों निक्षेष्ट-से होकर उदासीन ही एकमात्र कारण है; उसीकी विजय है। मैं इसे अपना भाव धारण कर रहे हैं? भक्तको सर्वस्व देनेवाले पुरुषार्थ नहीं मानता। पूर्वजोंने जो यहां आकर दयामय ! क्या इस समय आपने निर्दयता धारण कर ली पुण्योपार्जन किया है, उसका बल भी इसमें सहायक है? या यह कलियुगका प्रभाव है? अथवा देर नहीं है तथा स्वजनवर्गकी अविचल शक्ति भी इसमें लगाकर आप मनुष्योंके सत्त्व (शुद्ध भाव एवं धैर्य) की कारण नहीं है। इन तीर्थोंमें आनेपर शाप-ताप आदि क्या
परीक्षा ले रहे हैं या इस दासको भगवत्सेवामें कितनी कर सकते हैं।
रुचि है, इसका निरीक्षण कर रहे हैं? यः श्राद्धसमये दूरात्स्मृतोऽपि पितमक्तिदः। गदाधर मया श्राद्ध यधीण त्वत्प्रसादतः । तं गयार्या स्थित साक्षान्नमामि श्रीगदाधरम् ।।
अनुजानीहि मां देव गमनाय गृहं प्रति ।।* जो श्राद्ध-कालमें दूरसे स्मरण करनेपर भी
___गदाधर ! आपकी कृपासे मैंने यहाँ श्राद्धका
अनुष्ठान किया है। [इसे स्वीकार कीजिये और] देव ! पितरोंको मोक्ष प्रदान करते हैं, गयामें स्थित उन साक्षात् भगवान् श्रीगदाधरको मैं प्रणाम करता हूँ।
• अब मुझे घर जानेकी आज्ञा दीजिये।
एवं हि देवतानां च स्तोत्रं स्वर्गार्थदायकम्। पन्थानं समतीत्य दुस्तरमिमं दूराद्दवीयस्तरं ।
___ श्राद्धकाले पठेन्नित्यं स्नानकाले तु यः पठेत् ।। क्षुद्रव्याघ्रतरक्षुकण्टकफणिप्रत्यर्थिभिः संकुलम् ।
3 सर्वतीर्थसमं स्नानं श्रवणात्पठनाजपात् ।। आगत्य प्रथम ह्ययं कृपणवाग् याचेजनः के परं ।
__ प्रयागस्य च गङ्गाया यमुनायाः स्तुतेर्द्विज । श्रीमद्भारि गदाधर प्रतिदिनं त्वां द्रष्टुमुत्कण्ठते ॥ श्रवणेन विनश्यन्ति दोषाशैव तु कर्मजाः ।। भगवान् गदाधर ! यह आपका दास मक्खी,
(२३ । ५१, ५३, ५४) मच्छर, बाघ, चीते, काटे, सर्प तथा लुटेरोंसे भरे हुए इस
इस प्रकार यह देवताओंका स्तोत्र स्वर्ग एवं अभीष्ट दुस्तर मार्गको, जो दूरसे भी दूर पड़ता है, तै करके वस्तु प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य श्राद्धकालमें तथा पहले-पहल यहाँ आया है और दीन वाणीमें आपसे प्रतिदिन स्रानके समय इसका पाठ करता है, उसे सब याचना करता है। भला, आपके सिवा और किसके तीर्थों में मानके समान पुण्य होता है। इसके श्रवण, पाठ सामने यह हाथ फैलाये। भगवन् ! यह सेवक प्रतिदिन तथा जपसे उक्त फलकी सिद्धि होती है। ब्रह्मन् ! प्रयाग, आपके शोभासम्पन्न द्वारपर आकर दर्शनके लिये गङ्गा तथा यमुनाकी स्तुतिका श्रवण करनेसे कर्मजन्य उत्कण्ठित रहता है।
दोष नष्ट हो जाते हैं।
• अध्याय २३ श्लोक १५से ५०तक ।