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. अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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तथा पृथ्वीका दान करता है, वह उनके दानका अक्षय विनाश तो वह करता ही है। ब्राह्मणका धन, ब्रह्माहत्या, फल भोगता है। जो भूमिको न्यायपूर्वक देता और जो दरिद्रका धन, गुरु और मित्रका सुवर्ण-ये सब स्वर्गमें न्यायपूर्वक ग्रहण करता है, वे दोनों ही पुण्यकर्मा हैं; जानेपर भी मनुष्यको पीड़ा पहुंचाते हैं। उन्हें निश्चय ही स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जिन लोगोंने देवश्रेष्ठ इन्द्र ! जो ब्राह्मण श्रोत्रिय, कुलीन, दरिद्र, अन्यायपूर्वक पृथ्वीका अपहरण किया अथवा कराया संतुष्ट, विनयो, वेदाभ्यासी, तपस्वी, ज्ञानी और है, वे दोनों ही प्रकारके मनुष्य अपनी सात पीढ़ियोंका इन्द्रियसंयमी हो, उसे ही दिया हुआ दान अक्षय होता विनाश करते हैं उन्हें सद्गतिसे वंचित कर देते हैं। है। जैसे कच्चे वर्तनमें रखा हुआ दूध, दही, घी अथवा ब्राह्मणका खेत हर लेनेपर कुलकी तीन पीढ़ियोंका नाश मधु दुर्बलताके कारण पात्रको ही छेद देता है, उसी हो जाता है। एक हजार कूप और बावलो बनवानेसे, सौ प्रकार यदि अज्ञानी पुरुष गौ, सुवर्ण, वस्त्र, अत्र, पृथ्वी अश्वमेध करनेसे तथा करोड़ों गौएँ देनेसे भी भूमिहर्ताकी और तिल आदिका दान ग्रहण करता है तो वह काष्ठकी शुद्धि नहीं होती।
भाँति भस्म हो जाता है। किया हुआ शुभ कर्म, दान, तप, स्वाध्याय तथा जो नया पोखरा बनवाता है, अथवा पुरानेको ही जो कुछ भी धर्मसम्बन्धी कार्य है, वह सब खेतकी आधी खुदवाता है, वह समस्त कुलका उद्धार करके स्वर्गअंगुल सीमा हर लेनेसे भी नष्ट हो जाता है। गोतीर्थ लोकमें प्रतिष्ठित होता है। बावली, कुआँ, तडाग और (गौओके चरने और पानी पीने आदिका स्थान), गाँवकी बगीचे पुनः संस्कार (जीर्णोद्धार) करनेपर मोक्षरूप फल सड़क, मरघट तथा गाँवको दबाकर मनुष्य प्रलयकाल- प्रदान करते हैं। इन्द्र ! जिसके जलाशयमें गर्मीकी तक नरकमें पड़ा रहता है।* यदि जीविकाके बिना प्राण मौसमतक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम कण्ठतक आ जाये तो भी ब्राह्मणके धनका लोभ नहीं संकटका सामना नहीं करता। देवश्रेष्ठ ! यदि एक दिन करना चाहिये। अग्निकी आँच और सूर्यके तापसे जले भी पानी ठहर जाय तो वह सात पहलेकी और सात हुए वृक्ष आदि पुनः पनपते हैं, राजदण्डसे दण्डित पीछेको पीढ़ियोका उद्धार कर देता है। दीपका प्रकाश मनुष्योंकी अवस्था भी पुनः सुधर जाती है; किन्तु जिनपर दान करनेसे मनुष्य रूपवान् होता है और दक्षिणा देनेसे ब्राह्मणोंके शापका प्रहार होता है, वे तो नष्ट ही हो जाते स्मरणशक्ति तथा मेधा (धारणा-शक्ति) को प्राप्त करता हैं। ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेवाला मनुष्य रौरव है। यदि बलपूर्वक अपहरण की हुई भूमि, गौ तथा नरकमें पड़ता है। केवल विषको ही विष नहीं कहते, स्त्रीको मनुष्य पुनः लौटा न दे तो उसे ब्रह्महत्यारा कहा ब्राह्मणका धन सबसे बड़ा विष कहा जाता है। साधारण जाता है। विष तो एकको ही मारता है, किन्तु ब्राह्मणका धनरूपी इन्द्र ! जो विवाह, यज्ञ तथा दानका अवसर विष बेटों और पोतोका भी नाश कर डालता है। मनुष्य उपस्थित होनेपर उसमें मोहवश विघ्न डालता है, वह लोहे और पत्थरके चूरेको तथा विषको भी पचा सकता मरनेपर कौड़ा होता है। दान करनेसे धन और जीव-रक्षा है; परन्तु तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो ब्राह्मणके करनेसे जीवन सफल होता है। रूप, ऐश्वर्य तथा धनको पचा सके। ब्राहाणके धनसे जो सुख उठाया आरोग्य-ये अहिंसाके फल है, जो अनुभवमें आते हैं। जाता है, देवताके घनके प्रति जो राग पैदा होता है, वह फल-मूलके भोजनसे सम्मान तथा सत्यसे स्वर्गकी प्राप्ति धन समूचे कुलके नाशका कारण होता है तथा अपना होती है। मरणान्त उपवाससे राज्य और सर्वत्र सुख
* कृतं दतं तपोऽधीत यत्किञ्चिद्धर्मसंस्थितम् । अर्धाङ्गलस्य सीमाया हरणेन प्रणश्यति ॥ गोतीर्थ ग्रामरथ्यां च श्मशान ग्राममेव च । संपीड्य नरकं याति यावदाभूतसंप्रथम् ॥ (३३ । ३८-३९)