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अर्चस्व होके यदीच्छसि परं पदम् •
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साष्टाङ्ग प्रणाम हो तथा स्वामिन्! मैं जो कुछ करता हूँ, उससे आप जगदीश्वर श्रीविष्णु प्रसन्न हों। दृष्टेन वन्दितेनापि स्पृष्टेन च घृतेन च । नरा येन विमुच्यन्ते तदेतद् यामुनं जलम् ॥
जिसके दर्शन, वन्दन, स्पर्श तथा धारण करनेसे मनुष्य भव-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं, वही यह यमुनाजीका जल है। तावद् भ्रमन्ति भुवने मनुजा भवोत्थदारिद्र्यरोगमरणव्यसनाभिभूताः यावज्जलं तव महानदि नीलनीलं
पश्यन्ति नो दधति मूर्धसु सूर्यपुत्रि ॥ सूर्यपुत्री महानदी यमुनाजी! मनुष्य इस जगत् में प्राप्त होनेवाले दरिद्रता, रोग और मृत्यु आदि दुःखोंसे पीड़ित होकर तभीतक संसारमें भटकते रहते हैं, जबतक वे नीलमणिके सदृश आपके नीले जलका दर्शन नहीं करते अथवा उसे अपने मस्तकपर नहीं चढ़ाते । यत्संस्मृतिः सपदि कृन्तति दुष्कृतौघं पापावली जयति
योजनलक्षतोऽपि । पुनाति
यत्राम नाम जगदुश्चरितं
दिष्ट्या हि सा पथि शोभविताद्य गङ्गा ॥ जिनकी स्मृति पापराशिका तत्काल नाश कर देती है, जो लाख योजन दूरसे भी पापोंके समूहको परास्त करती हैं, जिनका नाम उच्चारण किये जानेपर सम्पूर्ण जगत्को पवित्र कर देता है, वे गङ्गाजी आज सौभाग्यवश मेरे दृष्टिपथमें आयेंगी। आलोकोत्कण्ठितेन प्रमुदितमनसा वर्त्म यस्याः प्रयातं सद् यस्मिन् कृत्यमेतामश्च प्रथमकृती जज्ञिवान् स्वर्गसिन्धुम् । स्नानं सन्ध्या निवापः सुरयजनमपि श्राद्धविप्राशनाद्यं सर्व सम्पूर्णमेतद् भवति भगवतः प्रीतिदं नात्र चित्रम् ॥
मनुष्य दर्शनके लिये उत्कण्ठित तथा प्रसन्नचित्त होकर जिसके पथका अनुसरण करता है, जिसके तटपर समस्त शास्त्रविहित कर्म उत्तमतापूर्वक सम्पन्न होते हैं, उन गङ्गाजीको आदि सृष्टिके रचयिता ब्रह्माजीने पहले स्वर्गङ्गाके रूपमें उत्पन्न किया था। उनके तटपर किया हुआ स्नान, सन्ध्या, तर्पण, देवपूजा, श्राद्ध और ब्राह्मणभोजन आदि सब कुछ परिपूर्ण एवं भगवान्को प्रसन्नता
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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प्रदान करनेवाला होता है— इसमें कोई आश्चर्यको बात नहीं है।
ब्रह्म
द्रवीभूतं परं परमानन्ददायिनि । अर्घ्यं गृहाण मे गङ्गे पाएं हर नमोऽस्तु ते ॥ परमानन्द प्रदान करनेवाली गङ्गाजी ! आप जलरूपमें अवतीर्ण साक्षात् परब्रहा हैं। आपको नमस्कार है। आप मेरा दिया हुआ अर्घ्य ग्रहण कीजिये और मेरे पाप हर लीजिये। I
साक्षाद्धर्मद्रवौघं मुररिपुचरणाम्भोजपीयूषसारं
दुःखस्वाव्येस्तरित्रं सुरदनुजनुतं स्वर्गसोपानमार्गम् । सर्वांहोहारि वारि प्रवरगुणगणं भासि या संवहन्ती
तस्यै भागीरथि श्रीमति मुदितमना देवि कुर्वे नमस्ते ॥ श्रीमती भागीरथी देवी! जो जलरूपमें परिणत साक्षात् धर्मकी राशि है, भगवान् विष्णुके चरणारविन्दोंसे प्रकट हुई सुधाका सार है, दुःखरूपी समुद्रसे पार होनेके लिये जहाज है तथा स्वर्गलोकमें जानेके लिये सीढ़ी है, जिसे देवता और दानव भी प्रणाम करते हैं, जो समस्त पापका संहार करनेवाला, उत्तम गुणसमूहसे युक्त और शोभा सम्पन्न है, ऐसे जलको आप धारण करती हैं। मैं प्रसन्नचित्त होकर आपको नमस्कार करता हूँ। स्वः सिन्धो दुरिताब्धिमत्रजनतासंतारणि प्रोल्लसत्कल्लोलामलकान्तिनाशिततमस्तोमे जगत्पावनि । गङ्गे देवि पुनीहि दुष्कृतभयक्रान्तं कृपाभाजनं मातम शरणागतं शरणदे रक्षाद्य भो भीषितम् ॥ स्वर्गलोककी नदी भगवती गङ्गे ! आप पापके समुद्रमें डूबी हुई जनताको तारनेवाली है, अपनी उठती हुई शोभायुक्त लहरोंकी निर्मल कान्तिसे पापरूपी अन्धकार राशिका नाश करती हैं तथा जगत्को पवित्र करनेवाली हैं; मैं पापके भयसे ग्रस्त और आपका कृपा भाजन हूँ। शरणदायिनी माता! आपकी शरण में आया हूँ आज मुझ भयभीतकी रक्षा कीजिये । हं हो मानस कम्पसे किमु सखे त्रस्तो भयान्नारकात्
किं ते भीतिरिति श्रुतिर्दुरितकृत् संजायते नारकी । मा भैषीः शृणु मे गतिं यदि मया पापाचलस्पर्धिनी प्राप्ता ते निरयः कथं किमपरं किं मे न धर्मो धनम् ॥