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उत्तरखण्ड ]
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गङ्गाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गङ्गा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
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ऐ मेरे चित! ओ मित्र ! तुम नरकके भयसे त्रस्त सर्वेश मामनुगृहाण नयस्व चोर्ध्वहोकर कॉप क्यों रहे हो ? क्या तुम्हें यह सोचकर भय हो रहा है कि पापी मनुष्य नरकमें पड़ता है ऐसा श्रुतिका कथन है। सखे! इसके लिये भय न करो; मेरी क्या गति होगी – यह बताता हूँ, सुनो; यदि मुझे पापोंके पहाड़से भी टक्कर लेनेवाली भगवती गङ्गा प्राप्त हो गयी हैं तो तुम्हें नरककी प्राप्ति कैसे हो सकती है अथवा दूसरी कोई दुर्गति भी क्यों होगी। क्या मेरे पास धर्मरूपी धन नहीं है ?
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स्वर्वासाधिप्रशंसामुदमनुभवितुं मज्जनं यत्र चोक्तं स्वनयों वीक्ष्य हृष्टा विबुधसुरपतिप्राप्तिसंभावनेन । नीरे श्रीजकन्ये यमनियमरताः स्त्रान्ति ये तावकीने देवत्वं ते लभन्ते स्फुटमशुभकृतोऽप्यत्र वेदाः प्रमाणम् ॥
जिस गङ्गाजीके जलमें किया हुआ स्नान स्वर्गलोकके निवास तथा प्रशंसाके आनन्दको अनुभूतिका कारण बताया गया है, वहाँ किसीको स्नान करते देख स्वर्गलोकको देवियाँ एक नूतन देवता अथवा इन्द्रके मिलनेकी संभावनासे बहुत प्रसन्न होती हैं जह्रुपुत्री गङ्गे ! जो लोग यम-नियमोंका पालन करते हुए आपके जलमें स्नान करते हैं, वे पहलेके पापी होनेपर भी निश्चय ही देवत्व प्राप्त कर लेते हैं- इस विषयमें वेद प्रमाण हैं। बुद्धे सद्बुद्धिरेवं भवतु तव सखे मानस स्वस्ति तेऽस्तु आस्तां पादौ पदस्थौ सततमिह युवां साधुदृष्टी च दृष्टी । वाणि प्राणप्रियेऽधिप्रकटगुणवपुः प्राप्नुहि प्राणपुष्टिं यस्मात् सर्वैर्भवद्भिः सुखमतुलमहं प्राप्नुयां तीर्थपुण्यम् ॥
बुद्धे! सदा इसी प्रकार तुम्हारी सद्बुद्धि बनी रहे। सखे मन ! तुम्हारा भी कल्याण हो । चरणो ! तुम भी इसी प्रकार योग्य पद (स्थान) पर स्थित रहो। नेत्रो ! तुम दोनों भी उत्तम दृष्टिसे सम्पन्न रहो। वाणी ! तुम प्राणोंकी प्रिया हो तथा प्रकट हुए उत्तम गुणोंसे युक्त शरीर! तुम्हारी प्राणशक्तिका पोषण हो; क्योंकि मैं तुम सब लोगोंके साथ आज अतुलित सुख प्रदान करनेवाले तीर्थजनित पुण्यको प्राप्त करूँगा । श्रीजाह्नवीरविसुतापरमेष्ठिपुत्री[Hot 265 सिन्धुयाभरण तीर्थवर
पूर
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प्रयाग ।
स्वधाम्ना ।।
मन्तस्तमोदशविधं दलय गङ्गा, यमुना और सरस्वती—इन तीनों नदियोंको आभूषणरूपमें धारण करनेवाले तीर्थराज प्रयाग ! सर्वेश्वर! मुझपर अनुग्रह करो, मुझे ऊँचे उठाओ तथा मेरे अन्तःकरणके दस प्रकारके अविद्यान्धकारको अपने तेजसे नष्ट करो।
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वागीशविष्णवीशपुरन्दराद्याः
भजन्ति
पापप्रणाशाय विदां विदोऽपि । यत्तीरमनीलनीलं
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा इन्द्र आदि देवता और विद्वानोंमें श्रेष्ठ विद्वान् (ऋषि महर्षि) भी जिसके वेत कृष्णजलसे शोभित तटका सेवन करते हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो । कलिन्दजासङ्गमवाप्य
प्रत्यागता
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यत्रोज्झता
यत्र
स्वर्गधुनी
जनस्य
वटोऽश्यामगुणं वृणोति
स्वच्छायया श्यामलया श्यामः श्रमं कृन्तति यत्र दृष्टः
भजन्ति
अध्यात्मतापत्रितयं
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ जहाँ आयी हुई गङ्गा कलिन्दनन्दिनी यमुनाका सङ्गम पाकर मनुष्योंके आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक – इन तीनों तापोंका नाश करती हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।
श्यामो
अधि
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विहाय
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धुनोति ।
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ जहाँ श्यामवट उज्ज्वल गुण धारण करता है तथा दर्शन करनेपर अपनी श्यामल छायासे मनुष्योंके जन्ममरणरूप श्रमका नाश कर डालता है, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो । ब्रह्मादयोऽप्यात्मकृति
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or
जनानाम् । TSR
पुण्यात्मकभागधेयम् ।
दण्डधरः स्वद
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥