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६०० . अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण ....... .................................... ............................................ पुरोहितने मनमें विचार किया— 'जो गुरु मोहवश पृथ्वीपर फेंक, उसके बन्धु-वाधव मुँह फेरकर चल देते राजाको अधर्मसे नहीं रोकता, वह भी उसके पापका हैं; केवल धर्म ही उसके पीछे-पीछे जाता है। सब कुछ भागी होता है; यदि समझानेपर भी राजा अपने पुरोहितके जा रहा है, आयु प्रतिदिन क्षीण हो रही है तथा यह वचनोंकी अवहेलना करता है तो पुरोहित निर्दोष हो जाता जीवन भी लुप्त होता जा रहा है; ऐसी अवस्थामें भी तुम है। उस दशामें राजा ही सारे दोषोंका भागी होता है।' उठकर भागते क्यों नहीं ? स्त्री-पुत्र आदि कुटुम्ब, शरीर यह सोचकर उन्होंने राजासे धर्मानुकूल वचन कहा। तथा द्रव्य-संग्रह-ये सब पराये हैं, अनित्य है; किन्तु
कश्यप बोले-राजन् ! मैं तुम्हारा गुरु हूँ, अतः पुण्य और पाप अपने हैं। जब एक दिन सब कुछ धर्म और अर्थसे युक्त मेरे वचनोंको सुनो । राजाके लिये छोड़कर तुम्हें विवशतापूर्वक जाना ही है तो तुम अनर्थमें यही सबसे बड़ा धर्म है कि वह गुरुकी आज्ञामें रहे। फँसकर अपने धर्मका अनुष्ठान क्यों नहीं करते? मरनेके गुरुकी आज्ञाका आंशिक पालन भी राजाओंकी आयु, बाद उस दुर्गम पथपर अकेले कैसे जा सकोगे, जहाँ न लक्ष्मी तथा सौख्यको बढ़ानेवाला है। तुमने दानके द्वारा ठहरनेके लिये स्थान, न खानेयोग्य अत्र, न पानी, न कभी ब्राह्मणोंको तृप्त नहीं किया; भगवान् श्रीविष्णुकी राहखर्च और न राह बतानेवाला कोई गुरु ही है। यहाँसे
आराधना नहीं की; कोई व्रत, तपस्या तथा तीर्थ भी नहीं प्रस्थान करनेके बाद तुम्हारे पीछे कुछ भी नहीं जायगा, किया। महाराज ! कितने खेदकी बात है कि तुमने केवल पाप और पुण्य जाते समय तुम्हारे पीछे-पीछे कामके अधीन होकर कभी भगवानके नामका स्मरण जायेंगे। नहीं किया। अबलाओंकी संगतिमें पड़कर विद्वानोंको अतः अब तुम आलस्य छोड़कर वेदों तथा संगति नहीं की। जिसका मन स्त्रियोंने हर लिया, उसे स्मृतियोंमे बताये हुए देश और कुलके अनुरूप अपनी विद्या, तपस्या, त्याग, नीति तथा विवेकशील हितकारक कर्मका अनुष्ठान करो, धर्ममूलक सदाचारका चित्तसे क्या लाभ हुआ।* एकमात्र धर्म ही सबसे महान् सेवन करो। अर्थ और काम भी यदि धर्मसे रहित हों तो
और श्रेष्ठ है, जो मृत्युके बाद भी साथ जाता है। शरीरके उनका परित्याग कर देना चाहिये। दिन-रात इन्द्रियउपभोगमें आनेवाली अन्य जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब यहीं विजयरूपी योगका अनुष्ठान करना चाहिये; क्योंकि नष्ट हो जाती हैं। धर्मकी सहायतासे ही मनुष्य दुर्गतिसे जितेन्द्रिय राजा ही प्रजाको अपने वशमें रख सकता है। पार होता है। राजेन्द्र ! क्या तुम नहीं जानते, मनुष्योंके लक्ष्मी अत्यन्त प्रगल्भ रमणीके कटाक्षके समान चञ्चल जीवनका विलास जलकी उत्ताल तरङ्गोंके समान चञ्चल होती है, विनयरूपी गुण धारण करनेसे ही वह राजाओंके एवं अनित्य है। जिनके लिये विनय ही पगड़ी और पास दीर्घकालतक ठहरती है। जो अत्यन्त कामी और मुकुट हैं, सत्य और धर्म ही कुण्डल हैं तथा त्याग ही घमंडी हैं, जिनका सारा कार्य बिना विचारे ही होता है, कंगन है, उन्हें जड़ आभूषणोंकी क्या आवश्यकता है। उन मूढ़चेता राजाओंकी सम्पत्ति उनकी आयुके साथ ही मनुष्यके निर्जीव शरीरको ढेले और काठके समान नष्ट हो जाती है। व्यसन और मृत्यु-इनमें व्यसनको ही
* कि विद्यया कि तपसा कि त्यागेन नयेन बा। किं विविक्तेन मनसा स्त्रीभिर्यस्य मनो इतम् ।। (२५ । १४) + मृत शरीरमुत्सृज्य लोष्टकाष्ठसमं भुवि । विमुखा बान्धवा यानि धर्मस्तमनुगच्छति ।। गम्यमानेषु सर्वेषु क्षीयमाणे तथायुषि । जीविते लुप्यमाने च किमुत्थाय न धावसि ।। कुटुम्ब पुत्रदारादि शरीर द्रव्यसज्ञयः । पारक्यमधुवं किन्तु स्वीये सुक्तदुष्कृते ।। यदा सर्व परित्यज्य गन्तव्यमवशेन ते। अनर्थे कि प्रसक्तस्त्वं स्वधर्म नानुतिष्ठास।. .......... अविनाममभक्ष्याम्बुमपाथेयमदेशिकम् ।मृतः कान्तारमध्यानं कथमेको गमिष्यसि ।। न हि त्वां प्रस्थितं किञ्चित् पृष्ठतोऽनुगमिष्यति । दुष्कृतं सुकृतं च त्वां यास्यन्तमनुयास्यति ।। (९५। १९-२४)