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पातालखण्ड ]- वैशाख-माहात्म्यके प्रसङ्गमें राजा महीरथकी कथा और यम-ब्राह्मण-संवादका उपसंहार .
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हो गयी। उस समय मेरे तथा भगवान् विष्णुके दूत भी तेलके, मेदाके, तपे हुए स्तम्भके तथा कूट-शाल्पलि उन्हें लेने पहुंचे। विष्णुदूतोंने 'ये राजा धर्मात्मा हैं' यों नामके भी नरक है। छूरे, काँटे, कील और उग्र ज्वालाके कहकर मेरे सेवकोंको डाँटा और स्वयं राजाको विमानपर कारण क्षोभ एवं भय उत्पन्न करनेवाले बहुत-से नरक बिठाकर वे वैकुण्ठलोकमें ले गये। वैशाख मासमें है। कहीं तपी हुई वैतरणी नदी है। कहीं पीबसे भरे हुए प्रातःकाल स्रान करनेसे राजाका पातक नष्ट हो चुका अनेको कुण्ड हैं। इन सबमें पृथक्-पृथक् पापियोंको था। भगवान् विष्णुके दूत अत्यन्त चतुर होते हैं; वे डाला जाता है। कुछ नरक ऐसे हैं, जो जंगलके रूपमें भगवान्की आज्ञाके अनुसार राजा महीरथको नरक- है; वहाँके पत्ते तलवारकी धारके समान तीखे हैं। इसीसे मार्गके निकटसे ले चले। जाते-जाते राजाने नरकमें उन्हें 'असिपत्रवन' कहते हैं; वहाँ प्रवेश करते ही पकाये जानेके कारण घोर चीत्कार करनेवाले नारकीय नर-नारियोंके शरीर कटने और छिलने लगते हैं। कितने जीवोका आर्तनाद सुना। कड़ाहमें डालकर औटाये ही नरक घोर अन्धकार तथा आगकी लपटोंके कारण जानेवाले पापियोंका क्रन्दन बड़ा भयंकर था। सुनकर अत्यन्त दारुण प्रतीत होते हैं। इनमें बार-बार यातना राजाको बड़ा विस्मय हुआ। वे अत्यन्त दुःखी होकर भोगनेके कारण पापी जीव नाना प्रकारके स्वरोंमें रोते दूतोंसे बोले-'जीवोंके कराहनेकी यह भयंकर आवाज और विलाप करते हैं। राजन् ! इस प्रकार ये शास्त्रक्यों सुनायी दे रही है ? इसमें क्या कारण है ? आपलोग विरुद्ध कर्म करनेवाले पापी जीव कराहते हुए सब बातें बतानेकी कृपा करें।
नरकयातनाका कष्ट भोग रहे हैं। उन्हींका यह क्रन्दन हो विष्णुदूत बोले-जिन प्राणियोंने धर्मकी रहा है। सभी प्राणियोंको अपने पूर्वकृत कर्मोंका भोग मर्यादाका परित्याग किया है, जो पापाचारी एवं पुण्यहीन भोगना पड़ता है। परायी स्त्रियोंका सङ्ग प्रसत्रताके लिये हैं, वे सामिस्र आदि भयंकर नरकोंमें डाले गये हैं। पापी किया जाता है, किन्तु वास्तवमें वह दुःख ही देनेवाला मनुष्य प्राण-त्यागके पश्चात् यमलोकके मार्गमें आकर होता है। दो घड़ीतक किया हुआ विषय-सुखका भयानक दुःख भोगते हैं। यमराजके भयंकर दूत उन्हें आस्वादन अनेक कल्पोतक दुःख देनेवाला होता है। इधर-उधर घसीटते हैं और वे अन्धकारमें गिर पड़ते हैं। राजेन्द्र ! तुमने वैशाख मासमें प्रातःस्रान किया है, उन्हें आगमें जलाया जाता है। उनके शरीरमे काँटे उसकी विधिका पालन करनेसे तुम्हारा शरीर पावन बन चुभाये जाते हैं। उनको आरीसे चीरा जाता है तथा वे गया है। उससे छूकर बहनेवाली वायुका स्पर्श पाकर ये भूख-प्याससे पीड़ित रहते हैं। पीब और रक्तकी दुर्गन्धके क्षणभरके लिये सुखी हो गये हैं। तुम्हारे तेजसे इन्हें बड़ी कारण उन्हें बार-बार मूर्छा आ जाती है। कहीं वे तृप्ति मिल रही है। इसीसे अब ये नरकवी जीव खौलते हुए तेलमें औटाये जाते हैं; कहीं उनपर कराहना छोड़कर चुप हो गये हैं। पुण्यवानोंका नाम भी मूसलोंकी मार पड़ती है और कहीं तपाये हुए लोहेको यदि सुना या उच्चारण किया जाय तो वह सुखका साधक शिलाओंपर डालकर उन्हें पकाया जाता है। कहीं वमन, होता है तथा उसे छूकर चलनेवाली वायु भी शरीरमें कहीं पीब और कहीं रक्त उन्हें खानेको मिलता है। लगनेपर बड़ा सुख देती है।* मुदोको दुर्गन्धसे भरे हुए करोड़ों नरक है, जहाँ 'शरपत्र' यमराज कहते हैं-करुणाके सागर राजा महीरथ वन है, 'शिलापात के स्थान हैं (जहाँ पापी शिलाओंपर अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुके दूतोकी पटके जाते है) तथा वहाँकी समतल भूमि भी आगसे उपर्युक्त बात सुनकर द्रवित हो उठे। निश्चय ही साधु तपी होती है। इसके सिवा गरम लोहेके, खौलते हुए पुरुषोंका हृदय मक्खनके समान होता है। जैसे नवनीत
* नामापि पुण्यशैलानां श्रुतं सौख्याय कौर्तितम् । जायते तदपुःस्पर्शवायुः स्पर्शसुखावहः ।। (९७ । २७)