________________
५९२
. अर्चयावहवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
..
.
.
.
.
.
.
अपार हैं, उन भगवान् अनन्तकी पूजा-विधिका अन्त आदि मन्त्रोद्वारा श्रीहरिको सान कराये। तत्पश्चात् नहीं है। श्रीविष्णुका पूजन तीन प्रकारका होता है- विष्णुभक्त पुरुष वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, हार, गन्ध वैदिक, तान्त्रिक तथा मिश्र। तीनोंके ही बताये हुए तथा अनुलेपनके द्वारा प्रेमपूर्वक भगवान्का यथायोग्य विधानसे श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। वैदिक और शृङ्गार करे । पुजारीको उचित है कि वह श्रद्धापूर्वक पाद्य, मित्र पूजनकी विधि ब्राह्मण आदि तीन वर्णोक ही लिये आचमनीय, गन्ध, पुष्प, अक्षत तथा धूप आदि उपहार बतायी गयी है, किन्तु तान्त्रिक पूजन विष्णुभक्त शूद्रके अर्पण करे। उसके बाद गुड़, खीर, घी, पूड़ी मालपूआ, लिये भी विहित है। साधक पुरुषको उचित है कि लड्डू, दूध और दही आदि नाना प्रकारके नैवेद्य निवेदन शास्त्रोक्त विधिका ज्ञान प्राप्त करके एकाग्रचित्त हो करे। पर्वके अवसरोंपर अङ्गराग लगाना, दर्पण दिखाना, ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए श्रीविष्णुका विधिवत् पूजन दन्तधावन कराना, अभिषेक करना, अत्र आदिके बने करे। भगवान्की प्रतिमा आठ प्रकारकी मानी गयी हुए पदार्थ भोग लगाना, कीर्तन करते हुए नृत्य करना है-शिलामयी, धातुमयी, लोहेकी बनी हुई, लीपने और गीत गाना आदि सेवाएँ भी करनी चाहिये । सम्भव योग्य मिट्टीकी बनी हुई, चित्रमयी, बालूकी बनायी हुई, हो तो प्रतिदिन ऐसी ही व्यवस्था रखनी चाहिये। मनोमयी तथा मणिमयी। इन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा पूजनके पश्चात् इस प्रकार ध्यान करे-भगवान् (स्थापना) दो प्रकारकी होती है-एक चल प्रतिष्ठा श्रीविष्णुका श्रीविग्रह श्यामवर्ण एवं तपाये हुए जाम्बूनद और दूसरी अचल प्रतिष्ठा ।
नामक सुवर्णके समान तेजस्वी है; भगवान्के शव राजन् ! भक्त पुरुषको चाहिये कि वह जो कुछ भी चक्र, गदा और पद्यसे सुशोभित चार भुजाएँ हैं; उनकी सामग्री प्राप्त हो, उसीसे भक्तिभावके साथ पूजन करे। आकृति शान्त है, उनका वस्त्र कमलके केसरके समान प्रतिमा-पूजनमें स्नान और अलंकार ही अभीष्ट हैं अर्थात् पीले रंगका है; वे मस्तकपर किरीट, दोनों हाथोंमें कड़े, भगवद्विग्रहको नान कराकर पुष्प आदिसे शृङ्गार कर गलेमें यज्ञोपवीत तथा अँगुलियोंमें अंगूठी धारण किये देना ही प्रधान सेवा है। श्रीकृष्णमें भक्ति रखनेवाला हुए हैं। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न है, मनुष्य यदि केवल जल भी भगवान्को अर्पण करे तो कौस्तुभमणि उनकी शोभा बढ़ाता है तथा वे वनमाला वह उनकी दृष्टि में श्रेष्ठ है; फिर गन्ध, धूप, पुष्प, दीप धारण किये हुए हैं।
और अत्र आदिका नैवेद्य अर्पण करनेपर तो कहना ही इस प्रकार ध्यान करते हुए पूजन समाप्त करके घीमें क्या है। पवित्रतापूर्वक पूजनकी सारी सामग्री एकत्रित डुबोयी हुई समिधाओं तथा हविष्यद्वारा अग्निमें हवन करके पूर्वाग्र कुशोंका आसन बिछाकर उसपर बैठे; करे। 'आज्यभाग' तथा 'आधार' नामक आहुतियाँ पूजन करनेवालेका मुख उत्तर दिशाकी ओर या प्रतिमाके देनेके पश्चात् घृतपूर्ण हविष्यका होम करे । तदनन्तर पुनः सामने हो। फिर पाद्य, अर्थ्य, स्नान तथा अर्हण आदि भगवान्का पूजन करके उन्हें प्रणाम करे और पार्षदोको उपचारोंको व्यवस्था करे। उसके बाद कर्णिका और नैवेद्य अर्पण करे। उसके बाद मुख-शुद्धिके लिये केसरसे सुशोभित अष्टदल कमल बनावे और उसके सुगन्धित द्रव्योंसे युक्त ताम्बूल निवेदन करना चाहिये। ऊपर श्रीहरिके लिये आसन रखे। तदनन्तर चन्दन, फिर ोटे-बड़े पौराणिक तथा अर्वाचीन स्तोत्रोंद्वारा उशीर (खस) कपूर, केसर तथा अरगजासे सुवासित भगवानकी स्तुति करके 'भगवन् ! प्रसीद' (भगवन् ! जलके द्वारा मन्त्रपाठपूर्वक श्रीहरिको स्नान कराये। वैभव प्रसन्न होइये) यों कहकर प्रतिदिन दण्डवत् प्रणाम करे। हो तो प्रतिदिन इस तरहकी व्यवस्था करनी चाहिये। अपना मस्तक भगवान्के चरणोंमें रखकर दोनों 'स्वर्णधर्म' नामक अनुवाक, महापुरुष-विद्या, भुजाओंको फैलाकर परस्पर मिला दे और इस प्रकार 'सहस्रशीर्षा' आदि पुरुषसूक्त तथा सामवेदोक्त नीराजना कहे-'परमेश्वर ! मैं मृत्युरूपी ग्रह तथा समुद्रसे