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पातालखण्ड ] • तुलसीदल-अश्वस्थकी महिमा, वैशाख-माहात्म्यके सम्बन्ध में तीन प्रेतोका उद्धार .
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हो जाते हैं। जो बुद्धिमान् पीपलके पेड़की पूजा करता है, नारको अवस्था तुम्हें कैसे प्राप्त हुई ? मैं भयसे आतुर उसने अपने पितरोंको तृप्त कर दिया, भगवान् विष्णुकी और दुःखी हूँ, दयाका पात्र हैं; मेरी रक्षा करो। मैं
आराधना कर ली तथा सम्पूर्ण ग्रहोंका भी पूजन कर भगवान् विष्णुका दास हूँ, मेरी रक्षा करनेसे भगवान् लिया। अष्टाङ्गयोगका साधन, स्नान करके पोपलके तुमलोगोंका भी कल्याण करेंगे। भगवान् विष्णु वृक्षका सिंचन तथा श्रीगोविन्दका पूजन करनेसे मनुष्य ब्राह्मणों के हितैषी हैं, मुझपर दया करनेसे वे तुम्हारे ऊपर कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता । जो सब कुछ करनेमें संतुष्ट होंगे। श्रीविष्णुका अलसौके पुष्पके समान श्याम असमर्थ हो, वह स्त्री या पुरुष यदि पूर्वोक्त नियमोंसे युक्त वर्ण है, वे पीताम्बरधारी हैं, उनका नाम श्रवण करनेहोकर वैशाखकी त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा- मात्रसे सब पापोंका क्षय हो जाता है। भगवान् आदि तीनों दिन भक्तिसे विधिपूर्वक प्रातःस्रान करे तो सब और अत्तसे रहित, शङ्ख, चक्र एवं गदा धारण पातकोंसे मुक्त होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। करनेवाले, अविनाशी, कमलके समान नेत्रोंवाले तथा जो वैशाख मासमें प्रसन्नताके साथ भक्तिपूर्वक प्रेतोंको मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। ब्राह्मणोंको भोजन कराता है तथा तीन राततक प्रातःकाल यमराज कहते हैं-ब्रह्मन् ! भगवान् विष्णुका एक बार भी स्नान करके संयम और शौचका पालन नाम सुननेमात्रसे वे पिशाच संतुष्ट हो गये। उनका भाव करते हुए श्वेत या काले तिलोंको मधुमें मिलाकर बारह पवित्र हो गया। वे दया और उदारताके वशीभूत हो ब्राह्मणोंको दान देता है और उन्हींक द्वारा स्वस्तिवाचन गये। ब्राह्मणके कहे हुए वचनसे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई कराता है तथा 'मुझपर धर्मराज प्रसन्न हों' इस उद्देश्यसे थी। उसके पूछनेपर वे प्रेत इस प्रकार बोले। .. देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, उसके प्रेतोंने कहा-विप्र ! तुम्हारे दर्शनमात्रसे तथा जीवनभरके किये हुए पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। जो भगवान् श्रीहरिका नाम सुननेसे हम इस समय दूसरे ही वैशाखकी पूर्णिमाको मणिक (मटका), जलके घड़े, भावको प्राप्त हो गये-हमारा भाव बदल गया, हम पकवान तथा सुवर्णमय दक्षिणा दान करता है, उसे दयालु हो गये। वैष्णव पुरुषका समागम निश्चय ही अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है।
पापोंको दूर भगाता, कल्याणसे संयोग कराता तथा शीघ्र इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास कहा जाता है, ही यशका विस्तार करता है।* अब हमलोगोका जिसमें एक ब्राह्मणका महान् वनके भीतर प्रेतोके साथ परिचय सुनो। यह पहला 'कृतन' नामका प्रेत है, इस संवाद हुआ था। मध्यदेशमें एक धनशर्मा नामक ब्राह्मण दूसरेका नाम 'विदैवत' है तथा तीसरा मैं हूँ, मेरा नाम रहता था; उसमें पापका लेशमात्र भी नहीं था। एक दिन 'अवैशाख' है, मैं तीनोंमें अधिक पापी हूँ। इस प्रथम वह कुश आदिके लिये वनमें गया। वहाँ उसने एक पापीने सदा ही कृतघ्नता की है; अतः इसके कर्मके अद्भुत बात देखी। उसे तीन महाप्रेत दिखायी दिये, जो अनुसार ही इसका 'कृतघ्न' नाम पड़ा है। ब्रह्मन् ! यह बड़े ही दुष्ट और भयंकर थे। घनशर्मा उन्हें देखकर डर पूर्वजन्ममें 'सुदास' नामक द्रोही मनुष्य था, सदा गया । उन प्रेतोंके केश ऊपरको उठे हुए थे। लाल-लाल कृतघ्नता किया करता था, उसी पापसे यह इस आँखें, काले-काले दाँत और सूखा हुआ उनका पेट था। अवस्थाको पहुँचा है। अत्यन्त पापी, धूर्त तथा गुरु और
धनशर्माने पूछा-तुमलोग कौन हो? यह स्वामीका अहित करनेवाले मनुष्यके लिये भी पापोंसे
• दर्शननैव ते विप्र नामश्रवणतो हरेः । भावमन्यमानुप्राप्ता वयं जाता दयालयः॥ __ अपाकरोति दुरितं श्रेयः संयोजयत्यपि । यशो विस्तारपत्याशु नूनं वैष्णवसङ्गमः ।। (९४ । ५४-५५)