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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् । नाम
- [संक्षिप्त पापुराण
स्वरूप हैं; अतः उनको शास्त्रोक्त मार्गसे इन्हींका पूजन प्राणी--ये भगवान्की पूजाके स्थान हैं। सूर्यमें त्रयीविद्या करना चाहिये ।* ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-इन तीन (ऋक्, यजु, साम) के द्वारा और अग्निमें हविष्यकी वों के लोग ही वेदोक्त मार्गसे भगवानकी आराधना आहृतिके द्वारा भगवान्की पूजा करनी चाहिये। श्रेष्ठ करें। स्त्री और शूद्र आदि केवल नाम-जप या नाम- ब्राह्मणमें आवभगतके द्वारा, गौओंमें घास और जल कीर्तनके द्वारा ही भगवदाराधनके अधिकारी हैं। भगवान् आदिके द्वारा, वैष्णवमें बन्धुजनोचित आदरके द्वारा तथा लक्ष्मीपति केवल पूजन, यजन तथा व्रतोंसे ही नहीं हृदयाकाशमें ध्याननिष्ठाके द्वारा श्रीहरिकी आराधना संतुष्ट होते। वे भक्ति चाहते है क्योंकि उन्हें 'भक्तिप्रिय' करनी उचित है। वायुमें मुख्य प्राण-बुद्धिके द्वारा, जलमें कहा गया है। पतिव्रता स्त्रियोका तो पति ही देवता है। जलसहित पुष्पादि द्रव्योंके द्वारा, पृथ्वी अर्थात् वेदी या उन्हें पतिमें ही श्रीविष्णुके समान भक्ति रखनी चाहिये मृन्मयी मूर्ति मन्त्रपाठपूर्वक हार्दिक श्रद्धाके साथ तथा मन, वाणी, शरीर और क्रियाओंद्वारा पतिकी ही समस्त भोग-समर्पणके द्वारा, आत्मामें अभेद-बुद्धिसे पूजा करनी चाहिये। अपने पतिका प्रिय करने में लगी हुई क्षेत्रज्ञके चिन्तनद्वारा तथा सम्पूर्ण भूतोंमें भगवानको स्त्रियोंके लिये पति-सेवा ही विष्णुको उत्तम आराधना है। व्यापक मानकर उनके प्रति समतापूर्ण भावके द्वारा यह सनातन श्रुतिका आदेश है। विद्वान् पुरुष अग्निमें श्रीहरिका पूजन करना चाहिये । इन सभी स्थानोंमें शङ्क, हविष्यके द्वारा, जलमें पुष्पोंके द्वारा, हृदयमें ध्यानके द्वारा चक्र, गदा और पद्यसे सुशोभित भगवान्के चतुर्भुज एवं तथा सूर्यमण्डलमें जपके द्वारा प्रतिदिन श्रीहरिकी पूजा शान्त रूपका ध्यान करते हुए एकाग्रचित्त होकर आराधन करते हैं।
___ करना उचित है। ब्राह्मणोंके पूजनसे भगवान्की भी पूजा अहिंसा पहला, इन्द्रिय-संयम दूसरा, जीवोपर दया हो जाती है। तथा ब्राह्मणोंके फटकारे जानेपर भगवान् करना तीसरा, क्षमा चौथा, शम पाँचवाँ, दम छठा, ध्यान भी तिरस्कृत होते है। वेद और धर्मशास्त्र जिनके सातवाँ और सत्य आठवाँ पुष्प है। इन पुष्पोंके द्वारा आधारपर टिके हुए हैं, वे ब्राह्मण भगवान् विष्णुके ही भगवान् श्रीकृष्ण संतुष्ट होते हैं। नृपश्रेष्ठ ! अन्य पुष्प तो स्वरूप हैं; उनका नामोच्चारण करनेसे मनुष्य पवित्र हो पूजाके बाह्य अङ्ग हैं, भगवान् उपर्युक्त पुष्पोंसे ही प्रसन्न जाते हैं। राजन् ! संसारमें धर्मसे ही सब प्रकारके शुभ होते हैं, क्योंकि वे भक्तिके प्रेमी है। जल वरुण देवताका फलोंकी प्राप्ति होती है और धर्मका ज्ञान वेद तथा [प्रिय] पुष्प है, घी, दूध और दही-चन्द्रमाके पुष्य हैं, “धर्मशास्त्रसे होता है। उन दोनोंके भी आधार इस अन्न आदि प्रजापतिके, धूप-दीप अग्निका और फल- पृथ्वीपर ब्राह्मण ही हैं; अतः उनकी पूजा करनेसे पुष्पादि वनस्पतिका पुष्प है ! कुश-मूलादि पृथ्वीका, जगदीश्वर ही पूजित होते हैं। देवाधिदेव विष्णु यज्ञ और गन्ध और चन्दन वायुका तथा श्रद्धा विष्णुका पुष्प है। दानोंसे, उग्र तपस्यासे, योगके अभ्याससे तथा सम्यक् बाजा विष्णुपद (विष्णु-प्राप्तिका साधन) माना गया है। पूजनसे भी उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना ब्राह्मणोंको इन आठ पुष्मोसे पूजित होनेपर भगवान् विष्णु तत्काल संतुष्ट करनेसे होते है। वेदोंके जाननेवाले ब्रह्माजी भी प्रसन्न होते हैं। सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, ब्राह्मणोंके भक्त हैं। ब्राह्मण देवता हैं, इस बातके वे ही हदयाकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और सम्पूर्ण प्रवर्तक हैं। वे ब्राह्मणोंको देवता मानते हैं; अतः
• पतिरूपो हिताचारैर्मनोवाकायसंयमैः । व्रतैराराध्यते स्त्रीभिर्वासुदेवो दयानिधिः ।।
त्यागमोक्तेन मार्गेण स्त्रीशूदैरपि पूजनम् । कर्तव्य कृष्णचन्द्रस्य द्विजातिवररूपिणः ॥ (८४:४७-४८) स्त्रिीणा परिवताना तु पतिरेव हि देवतम् । स तु पूज्यो विष्णुभक्त्या मनोवाकायकर्मभिः ॥
सीणामथाधिकतया विष्णोराराधनादिकम् । पतिप्रियरतानां च श्रुतिरेषा सनातनी ॥ हविषाग्नौ जले पुष्पैनिन हृदये हरिम् । यजन्ति सूरयो नित्यं जपेन रविमण्डले ॥ (८४ । ५१-५२, ५५)