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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
पाप छूट जाते हैं। पूर्वकालकी बात है, कोई मुनीश्वर होकर इस पृथ्वीपर घूमता हूँ और सबसे कहता फिरता तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे सर्वत्र घूम रहे थे। उनका नाम था हूँ कि 'मैं ब्रह्महत्यारा हूँ।' मुझ महापापी ब्रह्मघातीको मुनिशर्मा । वे बड़े धर्मात्मा, सत्यवादी, पवित्र तथा शम, आप कृपाकी भिक्षा दें। इस दशामें पड़े-पड़े मुझे एक दम एवं शान्तिधर्मसे युक्त थे। वे प्रतिदिन पितरोंका वर्ष बीत गया। मैं पापसे जल रहा हूँ। मेरा चित्त शोकसे तर्पण और श्राद्ध करते थे। उन्हें वेदों और स्मृतियोंके व्याकुल है। तथा ये जो सामने दिखायी देते हैं, इनका विधानोंका सम्यक् ज्ञान था। वे मधुर वाणी बोलते और नाम चन्द्रशर्मा है। ये जातिके ब्राह्मण हैं। इन्होंने मोहसे भगवानका पूजन करते रहते थे। वैष्णवोंके संसर्गमें ही मलिन होकर गुरुका वध किया है। ये मगधदेशके उनका समय व्यतीत होता था। वे तीनों कालोंके ज्ञाता, निवासी हैं। इनके स्वजनोंने इनका परित्याग कर दिया मुनि, दयालु, अत्यन्त तेजस्वी, तत्त्वज्ञानी और ब्राह्मण- है। ये भी घूमते-घामते दैवात् यहाँ आ पहुँचे हैं। इनके भक्त थे। वैशाखका महीना था, मुनिशर्मा नानके लिये भी न शिखा है न सूत्र । ब्राह्मणका कोई भी चिह्न इनके नर्मदाके किनारे जा रहे थे। उसी समय उन्होंने अपने शरीरमें नहीं रह गया है। इनके सिवा जो ये तीसरे व्यक्ति सामने पाँच पुरुषोंको देखा, जो भारी दुर्गतिमें फंसे हुए हैं, इनका नाम देवशर्मा है। स्वामिन् ! ये भी बड़े कष्टमें थे। वे अभी-अभी एक-दूसरेसे मिले थे। उनके हैं। ये भी जातिके ब्राह्मण हैं, किन्तु मोहवश वेश्याकी शरीरका रंग काला था। वे एक बरगदकी छायामें बैठे आसक्तिमें फंसकर शराबी हो गये थे। इन्होंने भी थे और पापोंके कारण उद्विम होकर चारों ओर दृष्टिपात पूछनेपर अपना सारा हाल सच-सच कह सुनाया है। कर रहे थे। उन्हें देखकर द्विजवर मुनिशर्मा बड़े विस्मयमें अपने प्रथम पापाचारको याद करके इनके हृदयमें बड़ा पड़े और सोचने लगे-इस भयानक वनमें ये मनुष्य संताप होता है। ये सदा मनस्तापसे पीड़ित रहते हैं। कहाँसे आये? इनकी चेष्टा बड़ी दयनीय है, किन्तु इनको इनकी स्त्रीने, बन्धु-बान्धवोंने तथा गाँवके सब इनका आकार बड़ा भयङ्कर दिखायी देता है। ये लोगोंने वहाँसे निकाल दिया है। ये अपने उसी पापके पापभागी चोर तो नहीं है? विप्रवर मुनिशर्माकी बुद्धि साथ भ्रमण करते हुए यहाँ आये हैं। ये चौथे महाशय बड़ी स्थिर थी, वे ज्यों ही इस प्रकार विचार करने लगे, जातिके वैश्य है। इनका नाम विधुर है। ये गुरुपत्नीके उसी समय उपर्युक्त पाँचों पुरुष उनके पास आये और साथ समागम करनेवाले हैं। इनकी माता मिथिलामें हाथ जोड़कर मुनिशर्मासे बोले।
जाकर वेश्या हो गयी थी। इन्होंने मोहवश तीन उन पुरुषोंने कहा-विप्रवर ! हमें आप महीनोंतक उसीका उपभोग किया है। परन्तु जब असली कल्याणमय पुरुषोत्तम जान पड़ते हैं। हम दुःखी जीव बातका पता लगा है तो बहुत दुःखी होकर पृथ्वीपर हैं। अपना दुःख विचारकर आपको बताना चाहते हैं। विचरते हुए ये भी यहाँ आ पहुँचे हैं। हममेंसे ये जो द्विजराज ! आप कृपा करके हमारी कष्ट-कथा सुनें। पाँचवें दिखायी दे रहे हैं, ये भी वैश्य ही हैं। इनका नाम
दैववश जिनके पाप प्रकट हो गये हैं, उन दीन-दुःखी नन्द है। ये पापियोका संसर्ग करनेवाले महापापी है। प्राणियोंके आधार आप-जैसे संत-महात्मा ही हैं। साधु इन्होंने प्रतिदिन धनके लालचमें पड़कर बहुत चोरी की पुरुष अपनी दृष्टिमात्रसे पीड़ितोंकी पौड़ाएँ हर लेते हैं। है। पातकोंसे आक्रान्त हो जानेपर इन्हें स्वजनोंने त्याग [अब उनमेंसे एकने सबका परिचय देना आरम्भ दिया है। तब ये स्वयं भी खिन्न होकर दैवात् यहाँ आ किया-1 मैं पञ्चाल देशका क्षत्रिय हूँ, मेरा नाम पहुंचे हैं। इस प्रकार हम पाँचों महापापी एक स्थानपर नरवाहन है। मैंने मार्गमें मोहवश बाणद्वारा एक जुट गये हैं। हम सब-के-सब दुःखोंसे घिरे हुए हैं। ब्राह्मणकी हत्या कर डाली । मुझसे ब्रह्म-हत्याका पाप हो अनेकों तीर्थोमें घूम आये, मगर हमारा घोर पातक नहीं गया है। इसलिये शिखा, सूत्र और तिलकसे रहित मिटता। आपको तेजसे उद्दीप्त देखकर हमलोगोंका मन